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तत्क्षेत्रं यच्च यादृक् च यद्विकारि यतश्च यत् ।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु ॥ (१३, ३)
यह क्षेत्र क्या है, कैसा है, इसमें कौन-कौनसे विकार उत्पन्न होते हैं तथा क्षेत्रज्ञ
क्या है और उसकी शक्तियाँ क्या हैं, सो संक्षेपमें सुन ।
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिविविधैः पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भवनिश्चितैः ॥ (१३, ४)
इस वस्तुका ऋषियोंने अनेक प्रकारसे वर्णन किया है, अनेक प्रकारके छन्दोंमें इसका पृथक्करण किया है और 'ब्रह्मसूत्र के हेतुपूर्ण उन पदोंमें, जिनमें कार्य-कारणकी श्रेणी भरी पड़ी है और जिसमें एक-एक शब्द तोलकर रखा गया है, यहाँतक कि जिनमें एक मात्राका भी फेरफार नहीं हो सकता, इस तरह इसका वर्णन किया गया है ।
महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।
इन्द्रियाणि दर्शक च पंच चेन्द्रियगोचराः ॥
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृति: ।
तत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥ (१३, ५-६)
पाँच महाभूत, अहंकार जिसके बलपर ये भूत टिक सकते हैं, बुद्धि, अव्यक्त ( प्रकृति), दस इन्द्रियाँ, मन और पाँच इन्द्रियोंके विषय तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात, चेतन शक्ति, धृति
-अपने विकारों सहित संक्षेपमें यह क्षेत्र है ।
संघातका अर्थ है शरीरके तत्त्वोंकी परस्पर सहयोग करनेकी शक्ति । वृतिका अर्थ धैर्यरूपी सूक्ष्म गुण न होकर यहाँ शरीरके परमाणुओंका परस्पर एकत्र रहनेका गुण है। यह गुण अहंभावके आधारपर ही सम्भव है और यह अहंभाव अव्यक्त प्रकृतिमें व्याप्त है।
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च ।
जन्ममृत्युज राव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ।।
असक्तिरनभिष्वंगः पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्य च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वम रतिर्जनसंसदि ॥ (१३, ७-१०)