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'गीता-शिक्षण'

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शुक्रवार, १७ सितम्बर, १९२६
 

तत्क्षेत्रं यच्च यादृक् च यद्विकारि यतश्च यत् ।

स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु ॥ (१३, ३)


यह क्षेत्र क्या है, कैसा है, इसमें कौन-कौनसे विकार उत्पन्न होते हैं तथा क्षेत्रज्ञ क्या है और उसकी शक्तियाँ क्या हैं, सो संक्षेपमें सुन ।

ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिविविधैः पृथक् ।

ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भवनिश्चितैः ॥ (१३, ४)

इस वस्तुका ऋषियोंने अनेक प्रकारसे वर्णन किया है, अनेक प्रकारके छन्दोंमें इसका पृथक्करण किया है और 'ब्रह्मसूत्र के हेतुपूर्ण उन पदोंमें, जिनमें कार्य-कारणकी श्रेणी भरी पड़ी है और जिसमें एक-एक शब्द तोलकर रखा गया है, यहाँतक कि जिनमें एक मात्राका भी फेरफार नहीं हो सकता, इस तरह इसका वर्णन किया गया है ।

महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च ।

इन्द्रियाणि दर्शक च पंच चेन्द्रियगोचराः ॥

इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृति: ।

तत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥ (१३, ५-६)

पाँच महाभूत, अहंकार जिसके बलपर ये भूत टिक सकते हैं, बुद्धि, अव्यक्त ( प्रकृति), दस इन्द्रियाँ, मन और पाँच इन्द्रियोंके विषय तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात, चेतन शक्ति, धृति

-अपने विकारों सहित संक्षेपमें यह क्षेत्र है ।

संघातका अर्थ है शरीरके तत्त्वोंकी परस्पर सहयोग करनेकी शक्ति । वृतिका अर्थ धैर्यरूपी सूक्ष्म गुण न होकर यहाँ शरीरके परमाणुओंका परस्पर एकत्र रहनेका गुण है। यह गुण अहंभावके आधारपर ही सम्भव है और यह अहंभाव अव्यक्त प्रकृतिमें व्याप्त है।

अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।

आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च ।

जन्ममृत्युज राव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ।।

असक्तिरनभिष्वंगः पुत्रदारगृहादिषु ।

नित्य च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।

विविक्तदेशसेवित्वम रतिर्जनसंसदि ॥ (१३, ७-१०)