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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।

एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥ (१३, ११)

अमानित्व, अदंभित्व, क्षमा, सरलता, गुरुकी सेवा, शौच, स्थिरता, आत्मसंयम, इन्द्रियोंके विषयोंके प्रति वैराग्य, अहंकाररहितता, जन्म, मरण, जरा, व्याधि, दुःख इत्यादि दोषोंका निरन्तर भान; पुत्र, स्त्री, घर इत्यादिके प्रति मोह तथा ममताका अभाव, प्रिय और अप्रियके प्रति नित्य समभाव, मेरे प्रति अनन्य, ज्ञानपूर्वक और एक- निष्ठ भक्ति, एकान्त-स्थलका सेवन, जनसमूहमें अरति, आध्यात्मिक ज्ञानक्री नित्यता- का भान, आत्म-दर्शन - यह सब ज्ञान कहलाता है और जो इससे विपरीत है वह अज्ञान कहलाता है।

शौच अर्थात् बाह्य और अन्तर शुद्धि । राम-नाम लेनेसे यह शुद्धि प्राप्त होती है। चौबीसों घंटे हृदयको राम-नामके उच्चारणसे स्वच्छ किया जाता रहे, तभी इस शुचिता- की रक्षा होती है। प्रभातकालमें हमारी आँखोंसे आँसुओंकी धारा बह चलनी चाहिए कि हम आज रामका नाम क्योंकर भूल गये । हमें आज दुःस्वप्न क्यों आया ।

इन्द्रियोंके विषयोंके प्रति वैराग्यका अर्थ है यह भावना कि अमुक चीजोंकी मुझे आवश्यक्ता नहीं है, मैं उन्हें स्वीकार नहीं कर सकता ।

जन्म, मरण, जरा, व्याधि, दुःख आदि दोषोंका दर्शन भी इसमें आ जाता है। प्रारम्भ ही 'पापोऽहम् ' से होता है। अनेक प्रकारकी व्याधियाँ हमें क्यों होती हैं ? इष्ट और अनिष्ट जो-कुछ आ पड़े, उसके विषयमें समभाव विकसित करना ही चाहिए । एकान्त-सेवनका क्या अर्थ है ? अकेले गुफामें जाकर बैठ जाना ? जब हजारों व्यक्तियोंके बीचमें भी एकान्तका अनुभव किया जा सके, तभी वह सच्चा एकान्त-सेवन है। एक ही विचारका चिन्तन करते हुए उसमें तल्लीन रहना एकान्त-सेवन कहलायेगा ।

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शनिवार, १८ सितम्बर, १९२६
 

ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते ।

अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥ (१३, १२)

अब ज्ञेय क्या है, सो तुझे बतलाऊँगा। जिसे जानकर मनुष्य अमृतत्त्व, अमर- पदको प्राप्त कर लेता है, वह ज्ञेय है। वह अनादि और परब्रह्म है, उसे सत् अथवा असत् नहीं कहा जा सकता ।

यह किसलिए कहा गया है, जब कि ब्रह्म ही सच्चिदानन्द है और केवल ब्रह्म ही सत्य है । श्रीकृष्ण कहना यह चाहते हैं कि इससे उलटा अर्थात् असत्से उलटा जो सत् है उसका अर्थ ब्रह्म नहीं है। जब ब्रह्मके सन्दर्भ में हम सत् शब्दका प्रयोग करते हैं तब उसका अर्थ होता है द्वन्द्वातीत अर्थात् सत् और असत्के द्वन्द्वमें से वह कुछ भी नहीं है। वह तो इन दोनोंसे भिन्न वस्तु है। ईश्वरको न बुरा कह सकते हैं, न अच्छा । वह तो इन दोनोंसे परे है। वह त्रिकालाबाध्य तत्त्व है।