सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ (१३, १३)
सभी दिशाओंमें उसके हाथ और पाँव हैं और सभी ओर उसके आँख, शिर और मुख हैं। सभी ओर उसके कान हैं। वह इस संसारमें सबको व्याप्त करके स्थित है ।
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविर्वाजतम् ।
असक्तं सर्वभूच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥(१३, १४)
वह सभी इन्द्रियोंके गुणोंके आभाससे युक्त है, फिरभी उसका स्वरूप इन्द्रियहीन है । वह आसक्तिरहित है और निर्गुण होते हुए भी सबका पोषण करनेवाला तथा गुणोंका भोक्ता है ।
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥ (१३, १५)
वह सर्व भूतोंके बाहर है और उनके भीतर भी है । वह चर और अचर है। सूक्ष्म होनेके कारण वह अविज्ञेय अर्थात् ऐसा है कि जाना नहीं जा सकता। वह दूर भी है और समीप भी है ।
अविभक्तम् च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥ (१३, १६)
यद्यपि यह ऐसा नहीं है कि इसके विभाग किये जा सकें फिर भी यह जीवों में विभक्त- जैसा ही रहता है। वह जानने योग्य है । भूतोंका भर्त्ता है। वह संहार- कर्त्ता और सबको उत्पन्न करनेवाला भी है ।
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ईश्वरके विषय में सारे विरोधी गुणोंकी कल्पना की गई है क्योंकि हम अपनेको द्वन्द्वसे मुक्त नहीं कर पाते ।
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥ (१३, १७)
वह ज्योतियोंकी भी ज्योति है । वह अन्धकारके परे है अर्थात् स्वयंप्रकाश है। ज्ञान भी वही है और ज्ञानसे जानने योग्य भी वही है । वह सबके हृदयोंमें स्थित है ।
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।
मद्भक्त एतद्द्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ।। (१३, १८)
इस तरह मैंने संक्षेपमें क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेयके विषय में बताया। इसे जानकर मेरा भक्त मेरे ही भावको प्राप्त हो जाता है।