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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

प्रकृति पुरुषं चैव विद्वय्नादी उभावपि ।

विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान् ॥ (१३, १९)

प्रकृति और पुरुष इन दो वस्तुओंकी जोड़ी अनादि है। विकार और प्रकृतिसे उत्पन्न होते हैं ।

कार्यकरणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।

पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते

कार्य अर्थात् विकारोंके वश होकर मनुष्य जो-कुछ करता है और कारण अर्थात् विकार -- - इनके कर्तृत्वमें भी प्रकृति ही हेतु है। पुरुष सुख-दुःखके भोक्तृत्वका हेतु है ।

ईश्वरके दो भाग किये -- एक स्वरूपको प्रकृतिकी तरह जान और दूसरेको जगत् में प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है इसलिए वह माया है। नहीं है क्योंकि वह साक्षी है।

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुंक्ते प्रकृतिजान्गुणान् ।

कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥ (१३, २१)

प्रकृतिमें स्थित पुरुष ही प्रकृतिसे उत्पन्न होनेवाले गुणोंका भोक्ता हैं । इन गुणोंकी संगति जीवात्माके शुभाशुभ योनियोंमें जन्म लेनेका कारण बनती है।

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बुधवार, २२ सितम्बर, १९२६
 

यदि हम ईश्वरको राजा मान लें देहपर से अपना अधिकार छोड़ दें तो पर्याप्त है।

उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।

परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥ (१३, २२)

इस देहमें स्थित पुरुष पर है। पर अर्थात् मायासे अतीत । किन्तु वह साक्षी है और अनुमति देनेवाला है। सबको धारण करनेवाला भर्त्ता और भोक्ता वही है। फिर वह महेश्वर है और उसे परमात्मा भी कहा गया है ।

अग्निमें जलानेकी शक्ति होती है, किन्तु यदि ईश्वरकी अनुमति न हो तो अग्नि जला नहीं सकती ।

य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृति च गुणैः सह ।

सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥ (१३, २३)

इस तरह जो व्यक्ति पुरुष और प्रकृतिको उसके गुणों समेत जानता है वह व्यक्ति सब तरहका आचरण करते हुए भी फिर जन्म नहीं लेता।

जो व्यक्ति ऐसा दावा करे कि मैं तो ईश्वरका भक्त हूँ, इसलिए जो कुछ में करता हूँ सो वास्तवमें ईश्वर करता है, तो उस व्यक्तिका ऐसा दावा करना मिथ्या