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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

वस्तु-मात्रका पृथक्करण करके देखें आदमी, मिट्टी, पानी - तो इन सभीका उत्तर अलग-अलग मिलेगा। किन्तु यदि हम वस्तुश: शोध न करके इनके मूलकी खोज करें तो नाम और रूपका खयाल ही न रहे । जो रावण हमारे समक्ष ऐसा प्रलोभन प्रस्तुत कर देता है कि हम अपनी इच्छापूर्वक उसके माया-जालमें फँस जाते हैं, वह उस रावणकी अपेक्षा अधिक भयंकर है जो साक्षात् हत्यारा था ।

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।

विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥ (१३, २७)

जो सर्वभूतोंके प्रति समदर्शी है और जो सभी नाशवानोंमें अविनाशी है, उस परमेश्वरको देखनेवाला ही वास्तवमें देखनेवाला है।

नाश तो प्रतिक्षण होता रहता है, फिर भी उसमें एक ऐसा अविनाशी तत्त्व पड़ा हुआ है, जिसपर इस चक्रका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जो उस अविनाशी तत्त्व- को देख पाता है वही वास्तविक द्रष्टा है।

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।

न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् । (१३, २८)

इस तरह जो व्यक्ति सभी स्थानोंपर इसी स्थितिमें उपस्थित ईश्वरको देखता है वह अपने हाथों अपना नाश नहीं करता, अपनी देहके नाशके साथ वह स्वयं नाशको प्राप्त नहीं होता, ऐसा वह मानता है। और इसीलिए वह परमगतिको प्राप्त करता है।

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।

यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥ (१३, २९)

जो यह जानता है कि सभी प्रकार प्रकृतिसे ही सारे कर्म उत्पन्न होते हैं और जो आत्माको अकर्ताक रूपमें जानता है अर्थात् जो यह जानता है कि सब-कुछ ईश्वरकी मायासे होता है फिर भी उसमें पड़ा हुआ पुरुष अकर्त्ता ही है, वह सम्यक् दृष्टिवाला व्यक्ति है।

भूतपृथग्भावमेक स्थमनुपश्यति ।

तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा ।। (१३, ३०)

नाना प्रकारके भूतोंके अलग-अलग होनेपर भी जब वह उन्हें एकमें ही रहते हुए देखता है और उसीमें से समस्त विस्तार हुआ है ऐसा समझता है तब वह ब्रह्मको पा जाता है ।

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शुक्रवार, २४ सितम्बर, १९२६
 

'गीता' मार्ग-दर्शक ग्रन्थ है और हम सभीको इसमें अपने समस्त व्यवहारका आधार खोजनेमें समर्थ हो सकना चाहिए। डा० त्रिभुवनदासकी पुस्तकको' सभी नहीं

१. माने शिखामण, देखिए आत्मकथा, भाग ३, अध्याय ६ ।