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'गीता-शिक्षण'

समझ सकते, किन्तु कोई वैद्य या डाक्टर उसे भली-भाँति समझ सकता है। हमारी भी स्थिति ऐसी ही है।

अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मा यमव्ययः ।

शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ।। (१३, ३१)

अनादि और निर्गुण होनेके कारण परमात्मा अव्यय है । शरीरस्थ होते हुए भी वह कुछ नहीं करता और किसीसे, किसी बातसे लिप्त नहीं होता ।

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते ।

सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥ (१३, ३२)

जिस तरह सुक्ष्म होनेके कारण आकाश सभी वस्तुओं और सभी स्थानों में होते हुए भी उनसे लिप्त नहीं होता, इसी तरह इस देहमें और सबमें रहनेवाला आत्मा भी लिप्त नहीं होता ।

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः ।

क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत

जिस तरह अकेला सूर्य इस सारे जगत्को प्रकाशित करता है उसी प्रकार क्षेत्री सारे क्षेत्रको प्रकाश देता है।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।

भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥ (१३, ३४)

ज व्यक्ति ज्ञान-चक्षुसे क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञके भेदको जानता है और यह जानता है। कि प्रकृति और मायाके बन्धनसे प्राणियोंकी मुक्ति किस प्रकार होती है, वह व्यक्ति मोक्षको जानता है ।

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शनिवार, २५ सितम्बर, १९२६
 

तेरहवें अध्यायमें यह बताया गया है कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका स्वरूप क्या है, उस स्वरूपको जाननेके साधन क्या हैं और ज्ञानके विभिन्न अंग क्या हैं । ज्ञानका पहला लक्षण तो अमानित्व बताया है। इसका अर्थ यह हुआ कि चाहे जितना ज्ञान होते हुए भी यदि अभिमान हो तो 'गीताजी 'को जानना व्यर्थ हो गया। जहाँ अभि- मान है, वहाँ ज्ञान नहीं है। ज्ञानी व्यक्ति सदा अमानी होता है, अदम्भी होता है, सरल होता है, गुरुकी उपासना करनेवाला होता है, पवित्र होता है, स्थिरतायुक्त होता है, आत्मनिग्रहयुक्त होता है, अहंकारहीन होता है। वह जरा और व्याधिसे दुःखी नहीं होता। वह पुत्र, दारा और गृहके प्रति अनासक्त होता है। वह मेरे प्रति अव्यभिचारी भक्तिवाला होता है, एकान्तसेवी होता है, अध्यात्मज्ञानमें रस लेनेवाला होता है और उसकी तत्त्वज्ञानके प्रति लगन होती है।