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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अध्याय १४

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रविवार, २६ सितम्बर, १९२६
 

हम यहाँ ‘गीताजीके' अभ्यास अर्थात् तदनुसार नित्य आचरण करनेके लिए एकत्रित होते हैं। यदि हमारे पेटमें दर्द हो तब हम किसी ऐसी पुस्तकको उठाते हैं जिसमें घरेलू दवाइयाँ दी गई हों और फिर उनमें से कोई दवा चुन लेते हैं। 'गीताजी' भी घरेलू दवाइयोंकी एक पुस्तक है । आध्यात्मिक रोगकी औषधि उसमें से ली जाती है। यदि हम 'गीताजी 'को अपनी कामधेनु बनाना चाहते हों तो उससे अधिकसे- अधिक जितना ले सकते हैं, उतना लें । 'गीता 'से हमें जो कुछ प्राप्त हो जाये उसके समर्थनकी दृष्टिसे हम चाहे जितनी पुस्तकोंका अध्ययन क्यों न करें किन्तु सन्तोष तो हमें 'गीता'के वचनोंसे ही करना चाहिए । इसलिए इसके प्रति हमारी अनन्य भक्ति होनी चाहिए । ऐसी अनन्य भक्ति स्वाभाविक रूपसे ही हममें उत्पन्न हो सकनी चाहिए ।

लोग किसी गाँवके एक तालाबमें से लुक-छिपकर मछलियाँ मार ले जाते थे । गाँवकी समितिने निश्चय किया कि मछलियाँ तो इस तरह मरती ही हैं, लोग भी लुक- छिपकर उन्हें मारनेके कारण डरपोक बनते हैं इसलिए हम ऐसा करें कि मछली मारनेकी अनुमति कुछ निश्चित रकम देनेके बाद दी जाये और फिर लोग मछलियाँ मारें । अन्य दूसरे लोगोंने सोचा कि मछलियाँ मारनेकी अनुमति देना और उससे पैसा पैदा करना अधर्म है। इस तरह दोनों पक्षोंमें मतभेद उत्पन्न हो गया। इस मतभेद- को मिटानेका काम मुझे सौंपा गया। निर्णय देते हुए मैं अपने मनमें घबराया क्योंकि धर्मज्ञान अथवा श्रद्धाके मामलेमें हम किसी दूसरेको अपना आधार नहीं बना सकते । यदि हम इन विषयोंमें दूसरोंकी बुद्धिके अनुसार चलें तो हम स्वयं तो भटक ही जायेंगे, दूसरा भी हमारे साथ मारा जायेगा । यदि उन लोगोंने मुझसे पूछनेके बदले 'गीता' अथवा 'वेद' अथवा 'कुरान 'से पूछनेका विचार किया होता तो अधिक अच्छा होता । हमें इन पुस्तकोंको अपने आध्यात्मिक रोगशमनका साधन मानना चाहिए। किन्तु बादमें मुझे सूझा कि व्यक्तिको चाहे जिस बातका समर्थन पुस्तकसे प्राप्त हो सकता है । किन्तु 'कामधुक्' का सच्चा अर्थ तो यही है कि उसमें से केवल शुभेच्छा ही फलित हो । यदि 'गीताजी' हमारी चाहे जिस इच्छाको पूर्ण करनेवाली बन जाये तो फिर वह कामधुक् नहीं, पूतना मौसी ठहरेगी । शास्त्रकारोंने कहा है कि शूद्र वेदादिका पठन नहीं कर सकते । शायद इसका यह कारण रहा होगा कि कहीं वे उसका मनमाना अर्थ न निकालें । जो व्यक्ति शास्त्रोंके पास पूरी तरह सत्य और अहिंसा में श्रद्धा रखकर नहीं जाता, उसका उनके पास जाना व्यर्थ ही है । 'बाइबिल', 'वेद', 'पुराण', सभीमें से चाहे जितने पाखण्डका समर्थन किया जा सकता है। इन पुस्तकोंको आधार बनाकर हत्यातक का समर्थन करनेवाले देखे गये हैं। किन्तु जो व्यक्ति 'गीता' को सत्य और अहिंसाका साधन मानकर पढ़ेगा उसके लिए वह मार्गदर्शक