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'गीता-शिक्षण'

सिद्ध होगी। अतः प्रत्येक व्यक्तिको इसमें से स्वयं ही अपना निर्णय कर लेना चाहिए । मेरे अथवा किशोरलालके पास जाकर, हमसे पूछकर, हमारे अर्थको स्वीकार करनेसे 'गीता' 'कामधुक्' नहीं बनती। दूसरेकी श्रद्धा स्वीकार करनेके बदले स्वयं श्रद्धायुक्त होकर अपना निर्णय आप करना चाहिए । जहाँ मन्शा स्वच्छ है और दम्भका लेश नहीं है वहाँ यदि निर्णय लेनेमें चूक हो जाये तो भी वह क्षम्य ही होगी । ऐसा व्यक्ति गलती करके सावधान हो जाता है और सीधे रास्ते लग जाता है।

परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् ।

यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ।। (१४, १)

जिस उत्तम ज्ञानको जानकर सारे मुनियोंने परम सिद्धि प्राप्त की, मैं तुझे वह ज्ञान फिरसे बता रहा हूँ ।

इवं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधम् गताः ।

सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥ (१४, २)

इस ज्ञानका आश्रय लेकर जो लोग मेरे प्रति तन्मय हो गये हैं, उन्हें सृष्टि-कालमें जन्म नहीं लेना पड़ता और प्रलयकालमें उनका नाश भी नहीं होता ।

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मंगलवार, २८ सितम्बर, १९२६
 

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् ।

संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥ (१४, ३)

हे अर्जुन, महद्ब्रह्म अर्थात् प्रकृति मेरी योनी है और मैं उसमें गर्भ स्थापित करता हूँ। सभी जीवोंकी उत्पत्ति उसीसे होती है।

'बाइबिल'का लगभग पहला ही वाक्य है कि ईश्वरने कहा कि प्रकाश हो और प्रकाश हो गया; जगत् बने और जगत् बन गया । कुम्हारको चाकके ऊपर मिट्टी चढ़ानी पड़ती है और फिर उसे आवेमें पकाना पड़ता है। ईश्वरको ऐसा नहीं करना पड़ता। ईश्वर तो बाजीगर है; वह अपनी कल्पनामात्र - प्रकृति, लक्ष्मी, जगदम्बाके उदरमें गर्भ स्थापित करता है और जगत् पैदा हो जाता है।

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः संभवन्ति याः ।

तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥ (१४, ४)

समस्त योनियोंसे जो-जो शरीर उत्पन्न होते हैं, उनकी महत् योनि में हूँ और बीज प्रस्थापित करनेवाला पिता भी मैं हूँ ।

{{c|सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः ।}

निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥ (१४, ५)

प्रकृतिमें से सत्व, रजस् और तमस् अव्यक्त देहीको बाँधकर रखते हैं। - ये तीन गुण उत्पन्न होते हैं। वे देहमें स्थित

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