पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

और न चपटी; छरहरा बदन, मध्यम कद, वर्ण श्याम। वे शान्तिकी मूर्ति दिखाई देते थे। उनके कंठमें इतना माधुर्य था कि उनको सुनते हुए मनुष्य कभी नहीं थकता। चेहरा हँसमुख और प्रफुल्लित था, उसपर अन्तरानन्दकी चमक थी। भाषा उनकी इतनी परिपूर्ण थी कि उन्हें अपने विचार व्यक्त करते हुए किसी दिन कोई शब्द ढूँढ़ना पड़ा हो, सो मुझे याद नहीं। पत्र लिखते समय मैंने उन्हें कदाचित् ही शब्दोंको बदलते हुए देखा हो, फिर भी पढ़नेवालेको यह महसूस नहीं होगा कि विचार कहीं अपूर्ण हैं अथवा वाक्य रचना छिन्न-भिन्न या शब्दोंके चयनमें त्रुटि है।

यह वर्णन किसी संयमीके लिए ही सम्भव है। बाह्याडम्बरसे मनुष्य वीतरागी नहीं हो सकता —वीतरागता तो आत्माका प्रसाद है। यह केवल अनेक जन्मोंके प्रयत्नसे ही मिल सकता है, ऐसा हर कोई व्यक्ति अनुभव कर सकता है। रागोंको दूर करनेका प्रयत्न करनेवाला व्यक्ति जानता है कि रागरहित होना कितना कठिन है। यह रागरहित दशा कविके लिए स्वाभाविक थी, ऐसी मुझपर छाप पड़ी।

वीतरागता मोक्षके मार्गका पहला चरण है। जबतक जगतकी एक भी वस्तुमें हमारा मन आसक्त है तबतक हमें मोक्षकी बात कैसे भा सकती है अथवा भायेगी भी तो केवल कानको ही भायेगी। यह ठीक वैसा ही होगा जैसे हमें अर्थ जाने-समझे बिना संगीतका केवल स्वर ही भा जाये। ऐसे मात्र कर्णप्रिय विनोदमें से मोक्षका अनुसरण करनेवाला आचरण आते-आते तो बहुत समय बीत जायेगा। आन्तरिक वैराग्यके बिना मोक्षकी लगन नहीं लगती। ऐसे वैराग्यकी लगन कविको थी।

प्रकरण ४ : व्यापारी जीवन

वणिक उसका नाम जो झूठ न बोले
वणिक उसका नाम जो कम न तोले
वणिक उसका नाम जो पिताके वचनका पालन करे
वणिक उसका नाम जो ब्याज सहित धन लौटाए।
विवेक माप है वणिकका, और उसकी साख ही माप है सुलतानका
यदि वणिक व्यापारमें चूकता है तो दुःख-रूपी दावानल फैल जाता है।

शामल भट्ट

सामान्यतया यह मान्यता है कि व्यवहार अथवा व्यापार और परमार्थ अथवा धर्म ये दो भिन्न और विरोधी वस्तुएँ हैं। व्यापारमें धर्मका अनुसरण करना पागलपन है; ऐसा करनेसे दोनों बिगड़ते हैं । यह मान्यता यदि झूठी न हो तो कहना होगा कि हमारे भालमें केवल निराशा ही लिखी हुई है । ऐसी एक भी वस्तु नहीं है, ऐसा एक भी व्यवहार नहीं है जिससे हम धर्मको दूर रख सकें ।

रायचन्दभाईने अपने जीवनसे यह प्रदर्शित कर दिखाया कि धार्मिक मनुष्यका धर्म उसके प्रत्येक कार्यमें झलकना ही चाहिए। धर्मका पालन एकादशीके दिन ही, पर्युषण पर्व में ईदके दिन अथवा रविवारको ही करना है; अथवा मन्दिरोंमें, गिरजाघरों अथवा मस्जिदोंमें ही करना है और दुकान अथवा दरबारमें नहीं करना है, ऐसा कोई