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'श्रीमद् राजचन्द्र' की भूमिका

नियम नहीं है। इतना ही नहीं वरन् रायचन्दभाई कहा करते थे कि ऐसा कहना धर्मको न समझनेके बराबर है। वे ऐसा मानते थे और अपने आचार-व्यवहारसे उन्होंने इस बातको सिद्ध करके दिखा दिया था।

उनका व्यापार हीरे-मोतीका था। वे श्री रेवाशंकर जगजीवन झवेरीके साथ इस व्यापारमें उनके हिस्सेदार थे। साथमें कपड़े की दुकान भी चलाते थे। मेरे मनपर हमेशा यही छाप पड़ी कि वे अपने व्यवहारमें सम्पूर्ण ईमानदारी बरतते थे। जब वे सौदा किया करते तब मैं कभी-कभी अनायास ही वहाँ उपस्थित रहता। उनकी बात स्पष्ट और एक ही होती थी। "चालाकी" जैसी कोई चीज मैंने नहीं देखी। सामनेवाले व्यक्तिकी चालाकीको वे तुरन्त भाँप लेते थे और वह उन्हें असह्य होती थी। ऐसे समय उनकी भृकुटि तन जाती और मैं देखता कि उनकी आँखें लाल हो गई हैं।

लोगोंको यह जो भ्रम है कि धर्मकुशल व्यक्ति व्यवहारकुशल नहीं होता, यह बात उन्होंने गलत सिद्ध कर दिखाई। वे अपने व्यापारमें पूरी सावधानी और होशि- यारीसे काम लेते थे। हीरे-मोतीकी परीक्षा वे अत्यन्त सूक्ष्मतासे कर सकते थे। हालाँकि उन्हें अंग्रेजीका ज्ञान नहीं था तथापि पेरिस स्थित अपने एजेन्टकी ओरसे प्राप्त होने- वाले पत्रों और तारोंका मर्म वे तुरन्त समझ जाते थे और उनकी चालाकी समझने में उन्हें देर न लगती थी । उनके किए हुए अनुमान बहुधा सत्य निकलते थे।

इतनी सावधानी और होशियारी होनेके बावजूद उनमें अपने व्यापारके सम्बन्धमें उतावली अथवा चिन्ता न थी। दुकानमें बैठे हुए भी जब उनका काम पूरा हो जाता तब उनके पास कोई-न-कोई धर्मग्रन्थ तो होता ही था। वे या तो उसे पढ़ने लगते अथवा अपनी उस पुस्तकको खोलते जिनमें वे अपने उद्गार लिखते थे। मेरे जैसे जिज्ञासु उनके पास रोज आते ही रहते थे। उनके साथ धर्म-चर्चा करनेमें वे तनिक भी संकोच नहीं करते थे। व्यापारके समय व्यापार और धर्मके समय धर्म, अथवा एक समयमें एक ही काम, इस सामान्य और सुन्दर नियमका कवि पालन नहीं करते थे। स्वयं शतावधानी होनेके कारण ही वे ऐसा कर सकते थे। लेकिन यदि कोई दूसरा उनका अनुसरण करनेका प्रयत्न करें तो यह एक ही समय में दो घोड़ोंकी सवारी करने जैसा होगा। सम्पूर्ण रूपसे धार्मिक अथवा वीतरागी पुरुषको भी वह जिस समय जो क्रिया कर रहा हो उसीमें लीन होना चाहिए, यह न केवल उचित है बल्कि यही बात उसे शोभा देती है। यह उसके योगकी निशानी है; इसमें धर्म है। व्यापार अथवा ऐसी कोई भी क्रिया यदि कर्त्तव्य हो तो उसमें भी पूरी एकाग्रता होनी ही चाहिए। अन्तरमें आत्मचिन्तन तो मुमुक्षुके लिए श्वास-प्रश्वासकी तरह स्वाभाविक और सहज होना चाहिए। उससे वह एक क्षणभरको भी वंचित नहीं रहता। किन्तु इस तरह आत्म-चिन्तन करते हुए भी उसे अपने बाह्य कार्यमें भी लीन होना चाहिए।

मैं यह नहीं कहना चाहता कि कवि ऐसा नहीं करते थे। मैंने ऊपर कहा ही है कि वह अपने व्यापारमें पूरी सावधानी बरतते थे। तथापि मुझपर यह छाप अवश्य