वह लकड़ी या पत्थरकी मूर्ति जैसी ही है। इस तरह वह व्यक्ति जल्दी ही शुद्ध हो जाता है ।
यदि हम भविष्यमें कभी मोक्ष प्राप्त करने, गुणातीत होनेकी इच्छा रखते हों तो हमें सात्विक गुणोंका विकास करना चाहिए। इसीलिए 'असतो मा सद्गमय की प्रार्थना की जाती है। जबतक व्यक्तिको ऐसा अनुभव होता रहे कि मैं परोपकार कर रहा हूँ तबतक वह स्वार्थी है। यदि वह ऐसा माने कि मैं गुणातीत हूँ तो वह जबरदस्त पाखण्डी है। यदि हम सचमुच परोपकारी हों, तो यह बात लोग जान ही जायेंगे। हमें उसकी अनुभूति कैसे हो सकती है। 'बाइबिल 'में कहा गया है कि 'तेरा दाहिना हाथ जो-कुछ करता है, बायेंको उसकी खबर न पड़े'। यह सात्विकताका चिह्न है। सात्विकताके लक्षण लगभग गुणातीत अवस्थाके जैसे ही होते हैं । निःसन्देह सात्विककी अपेक्षा गुणातीतकी ऊँची स्थिति है, क्योंकि वह तो दायाँ या बायाँ कोई भी हाथ क्या कर रहा है, इसे नहीं जानता।
{c|उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।}}
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेंगते ।। (१४, २३)
जो उदासीनकी भाँति स्थिर है, गुण जिसे विचलित नहीं कर सकते, जो ऐसा मानकर स्थिर है कि गुण ही अपने भावका अनुकरण कर रहे हैं, वह स्वयं विचलित नहीं होता ।
समदुःखसुखः स्वस्थ: समलोष्टाश्मकांचनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्य निन्दात्म संस्तुतिः ॥ (१४, २४)
सुख और दुःख जिसके लिए समान हैं, जो स्वस्थ रहता है, मिट्टीके ढेले, पत्थर और सोनेको जो समान गिनता है, जिसके लिए प्रिय और अप्रिय वस्तुएँ एक-सी हैं, जिसके लिए अपनी निन्दा और स्तुति समान है; और ऐसा धीर पुरुष,
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।
सर्वारंभपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ॥ (१४, २५)
जिसके लिए मान और अपमान एक-से हैं, जो मित्र-पक्ष और शत्रु-पक्षको समदृष्टिसे देखता है, जिसने सभी आरम्भोंका त्याग कर दिया है, वह गुणातीत कहलाता है।
गुणातीत अपनी स्थितिका अनुभव तो करता है, किन्तु वह उसका वर्णन नहीं कर सकता। जो अपनेको गुणातीत कहकर वर्णित करता है, वह गुणातीत नहीं है। क्योंकि इसका तो यह अर्थ हुआ कि उसमें अहंभाव शेष है ।
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ (१४, २६)
जो व्यक्ति अविचलित भक्तिके द्वारा मेरा सेवन करता है, वह गुणोंसे अतीत होकर ब्रह्मभावको प्राप्त करता है।