ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥ (१४, २७)
ब्रह्मका अमृतका, अव्ययका मोक्षका स्थान मैं हूँ। सनातन धर्मका स्थान में हूँ, एकान्तिक सुखका स्थान भी मैं हूँ ।
जो व्यक्ति अपनी त्रुटियोंको सुधारनेका प्रबल प्रयत्न करता है, सम्भव है वह इस जन्ममें उन सबको दूर न कर सके, किन्तु अन्ततोगत्वा उसे श्रेय मिलता ही है। संसार आज उसके दोषोंको ध्यानमें रखकर उसकी निन्दा भले ही करे, किन्तु वह तो इस सबको शान्तिपूर्वक सहता हुआ अपने प्रयत्नोंको प्रबलतर करता चला जायेगा और यदि वह ऐसा करेगा तो उसे शान्ति अवश्य मिलेगी। इस तरह प्रयत्नमें ही शान्ति प्रतिष्ठित है। यह एक बहुत बड़ा आश्वासन है। इसलिए हमें सात्विक गुणोंका विकास करनेका प्रयत्न करना चाहिए ।
अध्याय १५'
[ १७४ ] '
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद सवेदवित् ॥ (१५, १)
अविनाशी, अश्वत्थ वृक्षका मूल ऊपर है और शाखाएँ नीचे हैं तथा 'वेद' उसके पत्ते हैं. - ऐसा कहा गया है। जो अविनाशी अश्वत्थको जानते हैं वे 'वेद' के जाननेवाले ज्ञानी हैं। श्वः का अर्थ है आनेवाला कल । इसलिए अश्वत्थका मतलब होता है आने- वाले कलतक न टिकनेवाला क्षणिक संसार । संसारका प्रतिपल रूपान्तर हुआ करता है इसलिए वह अश्वत्थ है। जो इस संसारके यथार्थ रूपको जानता है और जो धर्मको जानता है वह ज्ञानी है।
[ १७५ ]
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा
गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।
अधश्च मूलान्यनुसंततानि
कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ।। (१५, २)
नीचे और ऊपर गुणोंसे हरी-भरी शाखाएँ फैली हैं। विषय उसके कोमल किस- लय हैं। विषय तो इसमें प्रस्फुटित होते ही रहते हैं। कर्मोका बन्धनकारी इसका मूल नीचे फैला हुआ है। इस संसारमें यह मनुष्यके लिए बन्धनकारी है ।
- ↑ यह विवरण महादेवभाईका लिखा हुआ नहीं है।