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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पहले श्लोकमें संसारसे तरनेका साधन बताया गया है। इस श्लोकमें दूसरी दृष्टिसे संसारका वर्णन किया गया है। यह वर्णन अज्ञानीकी दृष्टिमें संसार जैसा है, उस रूपका है।

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते

नान्तो न चादिनं च संप्रतिष्ठा ।

अश्वत्यमेनं सुविरूढमूल -

मसंगशस्त्रेण वृढेन छित्त्वा ॥

ततः पवं तत्परिमागितव्यं

यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ।

तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये

यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥ (१५, ३-४)

इसका रूप समझ में नहीं आता, न अन्त समझमें आता है, न आदि । इसकी जड़ें बहुत गहरी चली गई हैं। इस बद्धमूल अश्वत्थको असंग-रूपी मजबूत शस्त्रसे काटकर मनुष्य यह प्रार्थना करे। “जिसने सनातन प्रवृत्ति, मायाका प्रसार किया है, म उस आदि पुरुषकी शरणमें जाता हूँ। " ऐसी प्रार्थना करनेवाला व्यक्ति उस पदकी शोध कर रहा है, जिसे प्राप्त कर लेनेके बाद जन्म-मरणके चक्करमें नहीं पड़ना पड़ता।

इस जगत्में कर्म करते हुए भी अलिप्त तभी रहा जा सकता है जब हम इस जगत्को ईश्वरकी लीला न मानते हुए इसे भोगभूमि मानें और असहयोग-रूपी शस्त्र से इसकी जड़ काटें। दूसरे किसी उपायसे इसकी जड़ काटी नहीं जा सकती। क्योंकि यह अनादि और अनन्त है। इसीलिए भगवान् श्रीकृष्णने इसके साथ असहयोगकी बात सुझाई है।

निर्मानमोहा जितसंगदोबा

अध्यनित्या विनिवृत्तकामाः ।

द्वन्द्वेविमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै-

र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥ (१५, ५)

इस पदकी खोज करनेवाला व्यक्ति मान और अपमानकी भावनासे रहित होता है। उसमें मोहका नाम भी नहीं होता। संसर्ग दोषसे जो विकार उत्पन्न हो गये हों उन्हें वह जीत लेता है। उसे सदा ध्यान रहता है कि मैं आत्मार्थी हूँ अर्थात् जिसे प्रतिक्षण इस बातका ज्ञान रहता है कि मैं देह नहीं हूँ बल्कि आत्मा हूँ। उसके विषय शमित हो चुकते हैं। मरण-कालमें उसके मुखपर ग्लानि नहीं बल्कि प्रसन्नता होती है। वह सुख-दुःख रूपी द्वन्द्वसे मुक्त होता है। ऐसा 'अमूढ' व्यक्ति ही इस अव्यय पदको प्राप्त करता है।

अश्वत्थके एक-एक पत्तेपर वेद-वाक्य लिखे हुए हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि उसके पत्ते-पत्तेपर रामका नाम लिखा हुआ है। जगत् ईश्वरकी प्रसादी है और जगत्-