रूपी वृक्ष ब्रह्माकी नाभिसे उत्पन्न हुआ है। दूसरा जगत् ऐसा है कि जिसका मूल नीचे है और जिसके पत्ते इत्यादि विषयादि हैं। यह जगत् कामनामय है ।
“अध्यात्मनित्या" अर्थात् रामरत, रामका नाम लेनेवाले और रामका काम करनेवाले ।
[ १७६]
न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ (१५, ६)
जिसे न सूर्य प्रकाशित करता है, न चन्द्रमा और न अग्नि, क्योंकि यह स्वयं- प्रकाश है, और जहाँ पहुँचनेके बाद व्यक्ति वापस नहीं आता, वह श्रेष्ठ धाम मेरा है।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ।। (१५, ७)
मेरा ही अंश मृत्युलोकके जीवोंको, मन समेत छहों इन्द्रियोंको, जो प्रकृतिमें विद्यमान हैं, खींचता है।
'रोम रोम प्रति वेद कहे' ऐसा तुलसीदासजीने कहा है ।
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥ (१५, ८)
आत्मा जब शरीरको ग्रहण करता है अथवा जब वह शरीरका त्याग करता है तब वह उक्त इन्द्रियोंको ग्रहण करके गतिमान होता है जिस तरह वायु आसपास- की गन्धको लेकर गतिमान होता है ।
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते । (१५, ९)
[ तब वह जीवात्मा ] कान, आँख, त्वचा, जीभ और ना'क तथा मनका आश्रय लेकर विषयोंका उपसेवन करता है।
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुंजानं वा गुणान्वितम् ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥ (१५, १०)
जब वह देहको छोड़ता है अथवा जब वह देहमें स्थित रहता है तब गुणोंका आश्रय लेकर । भोगोंका सेवन करनेवाले मूढ़गण उसको देख नहीं सकते; किन्तु ज्ञान- चक्षुवाले ही उसे देख सकते हैं ।
हम जगत्को ही देखते हैं किन्तु उसमें जो ईश्वर ओतप्रोत है, उसे हम नहीं देख पाते ।