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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

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गुरुवार, ७ अक्तूबर, १९२६
 

यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।

{{c|यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः । (१५, ११)

प्रयत्न करनेवाले योगिगण इस देहधारीको अपने भीतर अवस्थित देख पाते हैं, किन्तु जिन्हें आत्मज्ञान नहीं हुआ है ऐसे मूढ़ व्यक्ति प्रयत्न करते हुए भी उसे देख नहीं पाते ।

इसका यह अर्थ हुआ कि पहले तो यम-नियम आदिका पालन किया जाना चाहिए। जिसने यम-नियम आदिका पालन नहीं किया है, ऐसा व्यक्ति 'गीता'का उलटा ही अर्थ लगायेगा। ऐसा व्यक्ति सोचेगा कि विषय इत्यादि भी ईश्वरने ही उत्पन्न किये हैं, इसलिए हम इन्हें ग्रहण करें। किन्तु जो व्यक्ति संस्कृत हो गया है, जिसने तपकी भट्टीमें अपनेको तपाया है, वही इसका सच्चा अर्थ कर सकेगा।

यदादित्यगतं तेजो जगद्द्भासयतेऽखिलम् ।

यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ॥ (१५, १२)

जो सूर्यगत तेज सारे जगत्‌को प्रकाश देता है, जो चन्द्रमामें है, और जो अग्निमें है वह मेरा ही तेज है, इसे समझ ।

'उपनिषद् 'में कथा आती है कि देवगण यज्ञका रूपधर कर अग्नि, वायु, इत्यादिकी परीक्षा लेने गये थे किन्तु वे सभी पराजित हुए थे ।'

गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।

पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥ (१५, १३)

मैं पृथ्वीके भीतर प्रवेश करके अपने तेजके द्वारा जीवोंको धारण करता हूँ । समस्त औषधि, अन्न, वनस्पति मात्रमें रसोंको उत्पन्न करनेवाला सोम बनकर मैं ही उनका पोषण करता हूँ ।

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।

प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुविधम् ॥ (१५, १४)

प्राणियोंकी देहमें स्थित वैश्वानरके रूपमें में प्राण और अपानसे युक्त होकर चार प्रकारके अन्नको पचाता हूँ।

वैश्वानर अर्थात् अन्नको पचानेवाली अग्नि । अन्न अथवा भोजनके चार प्रकार हैं : चोष्य, लेह्य, पेय और खाद्य ।

१. गाधोजोका तात्पर्यं कदाचित् केनोपनिषद्की कथासे है किन्तु उपर्युक्त विवरणमें भूल है।