पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/३४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३१७
'गीता-शिक्षण'

सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो

मत्तः स्मृतिज्ञानमपोहनं च।

वेवैश्च सवँरहमेव वेद्यो

वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥ (१५, १५)

मैं सबके हृदयमें संनिविष्ट हूँ। मेरे ही द्वारा मनुष्यको स्मृति, ज्ञान और बुद्धि प्राप्त होते हैं। सभी 'वेदों' में जानने योग्य मैं हूँ । वेदान्तको प्रकट करनेवाला और 'वेद' को जाननेवाला भी मैं ही हूँ ।

[ १७८ ]

शुक्रवार, ८ अक्तूबर, १९२६
 

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।

क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ (१५, १६)

इस लोकमें क्षर और अक्षर ऐसे दो पुरुष हैं । क्षर अर्थात् नाशवन्त, समस्त नाम-रूपधारी प्राणिगण । और इसमें जो अचल तत्त्व निहित है, जिसके ओजसके माध्यमसे सब-कुछ धारण किया जा रहा है, वह अक्षर है।

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।

यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥ (१५, १७)

इनसे परे जो उत्तम पुरुष है, वह तो दूसरा ही है। वह परमात्मा कहलाता है । यह अव्यय ईश्वर तीनों लोकोंमें प्रविष्ट होकर उनका रक्षण करता है।

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।

अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ।। (१५, १८)

क्योंकि मैं क्षर अर्थात् नाम, रूपका उल्लंघन कर गया हूँ और अक्षरसे भी बढ़कर हूँ इसलिए लोक और 'वेद' में मैं पुरुषोत्तम कहलाया।

यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।

स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ॥ (१५, १९)

जो व्यक्ति मूढ़ताका त्याग करके मुझे पुरुषोत्तमके रूपमें जानता है वह सब- कुछ जानता है और अनन्य भावसे मुझे भजता है।

द्वन्द्वातीत यही है । माया-रूप जगत्को तर जानेके बाद ईश्वरको कर्त्ता-रूपमें भी जानना आवश्यक कहाँ रहा ?

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।

एतद्द्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत । (१५, २०)

यह गुह्यतम, (श्रेष्ठतम) शास्त्र मैंने तुझे बताया। इसे जानकर व्यक्ति बुद्धिमान और कृतार्थ हो जाता है, तथा ऋणमुक्त भी हो जाता है।