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'गीता-शिक्षण'

अभिमान उत्पन्न हुआ और इस अभिमानके कारण उन्हें नीचा देखना पड़ा। 'पारुष्य' अर्थात् कठोरता ।

वैवी संपद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।

मा शुचः संपदं देवीमभिजातोऽसि पाण्डव

दैवी सम्पत्तियुक्त आदमी मोक्षकी तरफ बढ़ता है और आसुरी सम्पत्ति व्यक्तिको बन्धनमें डालती है। तुझे सोच नहीं करना चाहिए; तू तो दैवी सम्पत्ति लेकर जन्मा है ।

द्वौ भूतसगों लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।

देवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु ॥ (१६, ६)

इस संसार में स्वभाव दो प्रकारके हैं --दैवी और आसुरी। दैवी स्वभावका मैंने विस्तारसे वर्णन किया, अब आसुरी स्वभावके बारेमें सुन ।

प्रवृत्ति च निवृत्ति च जना न विदुरासुराः ।

न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥ (१६, ७)

आसुरी सम्पत्तिवाले लोग प्रवृत्ति और निवृत्तिको नहीं समझते। वे न शौच जानते हैं, न आचार, न सत्य ।

जिनमें शौच न हो, सत्य न हो, आचार न हो, वे बीमार हैं। मानसिक और शारीरिक दोषके बिना व्यक्ति रोगी नहीं होता। जिसका आत्मा चौबीसों घंटे जाग्रत रहता है, वह तो निरन्तर अपने भीतर तेजके संचारकी प्रार्थना करता है । लाधा महाराजने कुष्ठ रोगसे मुक्ति कैसे पाई ? वे अपने कोढ़के ऊपर बिल्वपत्र रगड़ते थे और अपने में तेजके संचारकी प्रार्थना करते थे। हम अपने शरीरको विकारवश होनेसे तभी रोक सकते हैं जब हम निरन्तर तेजके संचारकी प्रार्थना करें। मैं तो हरएक बीमारसे यही पूछूंगा कि तुम्हारे भीतर राग-द्वेष हैं कि नहीं। यदि बाह्रर-बाह्रर हमारे पास शौच और आचार हों, किन्तु सत्य न हो तो इसे 'बाहर ढोल और भीतर पोल' कहेंगे। हम इसी बातको सीखनेके लिए यहाँ इकट्ठा होते हैं।

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`मंगलवार, १२ अक्तूबर, १९२६
 

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदागुरनीश्वरम् ।

अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकम् ॥ (१६, ८)

आसुरी प्रकृतिवाले ये लोग जगत्को असत्य, आधारहीन और ईश्वरहीन कहते हैं। वे कहते हैं कि इसकी उत्पत्ति स्त्री-पुरुषके मैथुनसे ही हुई है; इसमें विषय-भोगके सिवाय अन्य उद्देश्य हो भी क्या सकता है ?