पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/३४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३२०
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः ।

प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः । (१६, ९)

इस दृष्टिका आश्रय लेकर ये नष्टात्मा, मन्दमति और उग्र कर्म करनेवाले जगत्का अहित और नाश करनेवाले हैं।

काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः ।

मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः।।(१६, १०)

कभी भी तृप्त न हो सकनेवाले कामका आश्रय लेकर दम्भ, मान तथा मदसे युक्त, अशुचिव्रत अर्थात् पाप बुद्धिवाले और मोहके कारण अयुक्त निश्चयवाले ये लोग दुनियामें पड़े हैं।

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः ।

कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ॥

{C|आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः ।}}

ईहन्ते कामभोगार्थं अन्यायेनार्थ संचयान् ॥ (१६, ११-१२)

अपार और प्रलय कालतक बनी रहनेवाली चिन्ताको आश्रय बनाकर चलने- वाले, कामोपभोगसे चिपके रहनेवाले, भोग ही सर्वस्व है, निश्चयपूर्वक ऐसा मानने- वाले, सैकड़ों आशाओंके बन्धनोंसे बँधे हुए, काम और क्रोधसे युक्त, ये लोग कामोप- भोगके लिए अन्यायसे अर्थसंचय करनेकी इच्छा करते हैं ।

जो व्यक्ति शास्त्राज्ञाका कवच पहने हुए है, काम और क्रोध उसका क्या बिगाड़ सकते हैं ।

क्रोधसे जितनी शक्तिका अपव्यय होता है, वह आनन्दसे व्यय होनेवाली शक्ति- की अपेक्षा अनेक गुना अधिक होता है। सामर्थ्य से अधिक शक्तिका व्यय होते रहने के कारण ही जगत्में अन्याय और अत्याचारका बोलबाला है।

[ १८२ ]

बुधवार, १३ अक्तूबर, १९२६
 

क्रोधमें तेरह स्नायुओंकी शक्ति लगती है, हँसनेमें नौ की। भोगमें मृत्यु निहित है, ब्रह्मचर्यमें अमृत । एक बार रायचन्दभाईका सिर दुख रहा था। मैंने उनसे पूछा कि क्या आप कहीं नाटक देखने गये थे? रायचन्दभाईने कहा, मैं रातको घरमें पड़े-पड़े ही नाटक देखता रहा। मैं अपने सिर दर्दको दूर करनेमें अपनी ताकत खर्च नहीं करना चाहता। यह् अच्छा है कि मैं जैसा हूँ वैसा ही तुम मुझे देख रहे हो। ईश्वरके नियमके मुकाबले में छोटा हूँ ।

विषयभोगका परिणाम तो मृत्यु ही है। यदि लोग विषयोपभोग ही करते रहें तो संसारमें ईश्वरका राज्य शेष न रहे, शैतानका ही राज्य हो जाये ।