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'गीता-शिक्षण'

इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् ।

इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ॥

असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि ।

ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ॥

आढचोऽभिजन वानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया ।

यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ॥ (१६, १३-१५)

आज मैंने इतना प्राप्त किया, कल उतना प्राप्त करूंगा; इतना तो मेरे पास है ही, और भी धन मेरा ही हो जानेवाला है; इस शत्रुको मैंने आज मारा, उसको मैं कल मारूंगा; में ईश्वर हूँ, मैं भोगी हूँ, मैं सिद्ध हूँ, मैं बलवान् हूँ, मैं सुखी हूँ; देखो, मैं कितना धनवान् हूँ, कितने ऊँचे कुलका हूँ, दूसरा कौन है मेरे सरीखा; मैं यज्ञ करूँगा, दान दूंगा, आनन्द मनाऊँगा - अज्ञानमें अन्धा व्यक्ति इस तरहकी बातें किया करता है।


इस तरह मनुष्य देहरूपी रत्न-चिन्तामणिको जुएमें हारता रहता है। युधिष्ठिरने भी ऐसा ही दाँव लगाया था । वे तो द्रौपदीको भी हार बैठे थे। फिर भी हम कह सकते हैं कि युधिष्ठिरमें दुर्योधन आदिकी अपेक्षा काम-क्रोधादि बहुत कम थे और कौरवोंमें ये दोष अपेक्षाकृत अधिक थे। हम तो इनके मिश्रणसे भरे हुए हैं। फिर भी किसी-न-किसी प्रकार हमें ऊपर चढ़ना है।

अनेक चित्त विभ्रान्ता मोहजालसमावृताः ।

प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ॥ (१६, १६)

मनमें अनेक प्रकारकी वृत्तियाँ तरंगित होती रहती हैं। इसलिए उनसे विभ्रान्त, मोहके जालमें फँसे हुए, काम-भोगमें आसक्त, अत्यन्त अपवित्र लोग नरकमें पड़ते हैं।

'आत्मसंभाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः ।

यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम् ॥ (१६, १७)

अपनी बड़ाई मारनेवाले, घमण्डी, धन, मान और मदसे युक्त ये लोग दम्भमें भरकर विधिसे हीन केवल नाम मात्रका यज्ञ करते रहते हैं।

नाम तो यज्ञ करनेका और इच्छा अपने स्वार्थको साधनेकी ।

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गुरुवार, १४ अक्तूबर, १९२६
 

अहंकारं बलं दर्प कामं क्रोधं च संश्रिताः ।

मामात्परदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः ॥ (१६, १८)

ऐसे लोग अहंकार, बल, घमंड, काम और क्रोधका आश्रय लेनेवाले, निन्दा करने- वाले और अपने तथा दूसरोंके देहमें स्थित मेरा विद्वेष करनेवाले हैं।

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