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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पड़ी है कि कविने अपने शरीरसे आवश्यकतासे अधिक काम लिया। कहीं यह योगकी अपूर्णता तो नहीं थी? धर्म-नीति कहती है कि कर्त्तव्य करते हुए शरीर भी दे देना चाहिए लेकिन अपनी शक्तिसे ज्यादा कोई काम अपने सिरपर लेना और उसे कर्त्तव्य मानना राग है। ऐसा सूक्ष्म राग कविको था, ऐसा मुझे हमेशा महसूस हुआ है।

अनेक बार परमार्थके विचारसे मनुष्य अपने ऊपर अपनी शक्तिसे बाहर काम ले लेता है और फिर उसे पूरा करनेमें उसे अपने साथ जबरदस्ती करनी पड़ती है। इसे हम गुण मानते हैं और उसकी प्रशंसा करते हैं। लेकिन परमार्थ अर्थात् धर्मकी दृष्टिसे देखनेपर इस तरह लिये गये काममें अज्ञानका होना बहुत सम्भव है।

यदि इस जगतमें हम केवल निमित्तमात्र ही हैं, यह शरीर हमें केवल भाड़े-पर ही मिला है और इसके द्वारा तुरन्त मोक्ष साधना ही यदि परम कर्तव्य है तो जो भी वस्तुएँ इस मार्ग में विघ्न उपस्थित करती हों उनका त्याग हमें अवश्य करना चाहिए। यही पारमार्थिक दृष्टि है, अन्य नहीं।

मैंने ऊपर जो तर्क दिया है उसे दूसरे ढँगसे और अपनी चमत्कारी भाषामें रायचन्द्रभाईने मुझे स्वयं बताया था। फिर भी उन्होंने ऐसी सारी मुसीबतें क्यों मोल ले लीं जिनके फलस्वरूप उन्हें भीषण बीमारी भोगनी पड़ी?

यदि मेरी यह मान्यता सत्य है कि परोपकारके बहाने रायचन्दभाईको भी एक क्षणके लिए मोहने घेर लिया था तो "प्रकृति यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति" यह श्लोकार्थ यहाँ पूरा उतरता है। इसका अर्थ इतना ही है कि जो लोग कृष्णके उपर्युक्त वचनका उपयोग मनमाना व्यवहार करनेके लिए करते हैं वे तो उसका केवल दुरुपयोग ही करते हैं। रायचन्दभाईकी प्रकृति उन्हें बलपूर्वक गहरे पानीमें ले गई। किन्तु ऐसे कार्यको केवल उन्हीं व्यक्तियोंके लिए दोषपूर्ण माना जा सकता है जो लगभग सम्पूर्णताकी स्थितिको पहुँच गये हों। हम सामान्य लोग तो परोपकारके कार्यके पीछे पागल बन जायें तभी कदाचित् उसका सम्पादन कर सकते हैं। अस्तु, इस विषयको हम इतना कहकर ही समाप्त करें।

ऐसी भी मान्यता देखनेमें आती है कि धार्मिक व्यक्ति तो बहुत भोले होते हैं और उन्हें सब धोखा दे सकते हैं। उन्हें दुनियाकी बातोंकी कोई खबर नहीं होती। यह बात सच हो तो कृष्ण और रामचन्द्र-जैसे अवतारी पुरुषोंकी गिनती तो संसारी मनुष्यों में ही होनी चाहिए। कवि कहा करते थे कि जिसे शुद्ध ज्ञान है उसे धोखा देना असम्भव है। यह हो सकता है कि कोई मनुष्य धार्मिक अर्थात् नीतिवान हो पर ज्ञानी न हो। लेकिन मोक्षके लिए नीति और अनुभव-ज्ञानका सुसंगम होना चाहिए। जिसे अनुभव-ज्ञान हो उसके आगे पाखण्ड टिक ही नहीं सकता। सत्यके निकट असत्य नहीं टिक सकता। अहिंसाके सान्निध्यमें हिंसा बन्द हो जाती है। जहाँ सरलता उद्भासित होती है वहाँ छल-रूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है। ज्ञानवान् और धर्मवान् कपटीको देखनेपर तुरन्त ही पहचान लेता है और उसका हृदय दयासे भीग उठता है। जिसने आत्माको प्रत्यक्ष देखा है वह दूसरोंको पहचाने बिना कैसे रह सकता है? पर कविके बारेमें यह नियम सदा ही सही उतरता था, ऐसा में