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'गीता-शिक्षण'

उल्लेख करते हैं कि जो बुरेके प्रति अच्छा बनेगा, वह अच्छेके प्रति बुरा बन जायेगा । शास्त्र सत्य और अहिंसाके अनुसारी हैं। शास्त्र राज्य चलाता है। उसका उद्देश्य अरा- जकता फैलाना नहीं है। शास्त्रके विषयमें हम कल और अधिक विचार करेंगे ।

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शुक्रवार, १५ अक्तूबर, १९२६
 

किसी भी सामाजिक प्रश्नपर विचार करना हो तो हम उससे सम्बन्धित किसी प्रमाण ग्रन्थके विषय में सोचते हैं और उसे लेकर बैठ जाते हैं। जैसे कि आज कुत्तोंका प्रश्न सामने है और वह मुझे नाहक परेशान किये हुए है। यदि हमारा आधार दृढ़ न हो तो शास्त्रोंका अध्ययन निरर्थक है। आधार दृढ़ होनेका मतलब यह है कि हम सत्यको तो किसी हालतमें नहीं छोड़ेंगे; हमारा सिद्धान्त तो यही होना चाहिए । युधिष्ठिर असत्य बोले होंगे किन्तु हमारे लेखे तो सत्य ही सब-कुछ है, यदि हम इस निश्चयपर दृढ़ हों तो शास्त्रका अध्ययन हमारे लिए प्रमाण हो सकता है।

यदि शास्त्रका अर्थ हो पुस्तक तो फिर 'बाइबिल', 'कुरान' और अन्य पुस्तकें हजारों वर्षोंसे हैं, किन्तु फिर भी कुछ पता नहीं चलता। कहनेका आशय यह है कि तू अपनेको प्रमाण मत मान, अर्थात् अपनी इच्छाओं और विकारोंको प्रमाण मत मान। जबतक व्यक्तिकी बुद्धि प्रवृत्त नहीं हुई है, जबतक बुद्धिमें से रामके नादके सिवाय कोई दूसरा नाद निकलता ही नहीं है, तबतक शास्त्रको प्रमाण मानना चाहिए । यहाँ दैवी और आसुरी प्रवृत्तियोंके संग्रामका उल्लेख है। जबतक यह संघर्ष चल रहा है, तबतक हम शास्त्रको प्रमाण मानकर चलें। शास्त्रका अर्थ है शिष्टाचार अर्थात् हम अपने उन पूर्वजोंके आचारका अनुसरण करें जो पवित्र और निर्भय थे। भेड़ चराने- वालोंका शिष्टाचार अथवा सदाचार दूसरेके झुण्डकी भेड़को अपने झुण्डमें घेर लेना हो सकता है और मांसाहारीका शिष्टाचार मांसाहार करना हो सकता है। एक लड़का मांसाहार करना चाहिए अथवा नहीं करना चाहिए, इस विषयपर मुझसे चर्चा करना चाहता था, किन्तु उसकी माँने मुझे उस लड़केसे बात नहीं करने दी। वह महिला सच्ची थी। उसने सोचा कि क्या जबरदस्ती कुछ भी हो सकता है। यदि यह लड़का निरामिषाहारी हो जाता है तो घरमें कलह पैदा हो जायेगा । शिष्टाचारका भय तो करना ही है । यदि वह सत्य इत्यादिको भंग करनेके लिए कहे, तो त्याज्य है । जहाँ गुरुकी परम्परा लुप्त हो जाती है वहाँ व्यक्ति स्वेच्छाचारी बन जाता है। ‘गीताजी ने कहा : ‘तद्विद्धि प्रणिपातेन' । किन्तु गुरु एकदम तो नहीं मिल जाता । गुरुकी खोजमें रहनेसे हृदय हमेशा विनयशील रहेगा । गुरुका ही विचार करते रहनेसे मनमें पवित्रता बनी रहेगी। 'गीता'ने कहा है : यदि तुम्हारे हृदय में दैवी विचारोंका संचार हुआ हो तो तुम्हें नम्र बन जाना चाहिए। पर मैं तो कुछ भी नहीं जानता। मैं तो ईश्वरसे अथवा गुरुसे पूछूं; किन्तु ये मिलें कहाँ ? इसलिए हम प्रार्थना करते हैं। जो ईश्वरको आधार मानकर ही प्रार्थना करता है वह किसी-न- किसी दिन तर जायेगा। जो व्यक्ति ब्रह्मको अपने भीतर समा चुकनेकी बात करता