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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है, वह नहीं तरता । अक्षरार्थ तो यही है कि हम शास्त्रको प्रमाण मानें किन्तु इसका भावार्थ है कि हम शिष्टाचारका अनुसरण करें। शिष्ट अर्थात् गुरु प्राप्त न हो तो हम नम्र बनें और नम्र बननेका अर्थ है सगुणकी उपासना करें। इसका अर्थ यह हुआ कि हम अपनेको कीड़े-मकोड़ोंकी तरह तुच्छ मानकर ईश्वरकी उपासना करें। यदि तू नम्र बन जायेगा तो तेरी रक्षा हो जायेगी । यदि तू नम्र बनेगा और सच्चा रहेगा तो तेरा परदा धीरे-धीरे खुलता चला जायेगा ।

सत्रहवां अध्याय ऊपरके इसी विचारसे प्रारम्भ होता है ।

अध्याय १७

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धायान्विताः ।

तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ।। (१७, १)

जो शास्त्रविधिका त्याग कर देते हैं, परन्तु श्रद्धायुक्त होकर भजन करते हैं उनकी निष्ठा कैसी है ? तामसी, राजसी अथवा सात्विकी ?

शास्त्र - विधिका त्याग करनेका अर्थ हुआ शिष्टाचार छोड़कर अथवा गुरुके मार्ग- दर्शनके बिना, किन्तु फिर भी श्रद्धावान् रहकर अर्थात् थोड़ी-बहुत नम्रता रखकर । श्रीकृष्ण इसका अप्रत्यक्ष उत्तर देते हैं कि शास्त्रको प्रमाण न मानना और श्रद्धा रखना परस्पर विरोधी वस्तुएँ हैं। शास्त्रको प्रमाण माननेमें ही श्रद्धा आ जाती है।

श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं :

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा ।

सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥ (१७, २)

श्रद्धा तीन प्रकारकी है और वह मनुष्योंमें स्वाभाविक है। सात्विकी, राजसी और तामसी । तू इसके विषयमें सुन ।

अर्जुन और कृष्ण घनिष्ठ मित्र हैं, किन्तु कृष्ण अर्जुनको जो-कुछ बता रहे हैं उसे अर्जुन पूरी तरह समझ नहीं पाता। अर्जुनका उद्देश्य कृष्णको प्रश्नोत्तरोंमें हराना नहीं है किन्तु कृष्ण सोचते हैं कि अर्जुन के साथ थोड़ा-बहुत खेल किया जा सकता है। भगवानको इस बातकी जरूरत नहीं है कि वे अर्जुनके प्रश्नके उद्देश्यको समझें । वे इतना मान लेते हैं कि कोई व्यक्ति शास्त्र-विधिको छोड़कर भी श्रद्धाके विषयमें प्रश्न कर सकता है। यह बात सात्विक है, राजसी है अथवा तामसी ?

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शनिवार, १६ अक्तूबर, १९२६
 

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत ।

श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥ (१७, ३)

सबकी श्रद्धा अपने-अपने सत्त्वके अनुरूप होती है। श्रद्धावान् पुरुषकी जैसी श्रद्धा होती है, वैसा उसका फल मिलता है।