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'गीता-शिक्षण'

श्रद्धा संस्कारयुक्त हो सकती है। मनुष्य के लिए श्रद्धा उपयोगी है किन्तु उसके ज़रिये मनुष्यको मार्गभ्रष्ट नहीं होना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति तिनकेका सहारा ले तो वह जरूर गिर पड़ेगा, किन्तु यदि वह किसी शाखाका आश्रय ले तो नीचे नहीं गिरेगा। शास्त्रकी दृढ़ शाखाको पकड़ रखनेवाला नीचे नहीं गिरता । श्रीमती बेसेंटने कहा है कि जो व्यक्ति शिखरपर नहीं पहुँचा है उसे पगडंडीका सहारा लेना ही पड़ता है। शास्त्र हमारी पगडंडी है। शिखरपर पहुँच जानेके बाद न पगडंडीकी जरूरत है और न सीढ़ियोंकी । शिखरपर का भाग उसे इतना सपाट लगने लगता है कि नीचेके भागकी उसे फिक्र ही नहीं करनी पड़ती।

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः ।

प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ॥ (१७, ४)

सात्विक मनुष्य देवताओंको पूजता है। देवताओंका अर्थ है सात्विक शक्तियाँ अथवा वृत्तियाँ। राजसी वृत्तिवाले व्यक्ति यक्षों और राक्षसोंको और तामसी वृत्तिवाले व्यक्ति भूत-प्रेतादिको भजते हैं।

अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः ।

दम्भाहंकार संयुक्ताः कामरागबलान्विताः ॥

कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः ।

मां चैवान्तः शरीरस्थं तान्विद्धयासुरनिश्चयान् ॥ (१७, ५-६)

जो लोग अशास्त्रविहित घोर तप करते हैं, दम्भी तथा अहंकारी होते हैं और जो काम तथा रागसे प्रेरित हैं वे शरीरमें स्थित पंचमहाभूतोंको तथा अन्तःकरणमें स्थित मुझको कष्ट देते हैं। ऐसे लोगोंको आसुरी संकल्पोंवाला जान ।

जो शास्त्राचारका आधार लेते ही नहीं हैं और अपने नशेमें झूमते चले जाते हैं, उस प्रकारके लोगोंकी स्थिति ऐसी ही हो जाती है।

यदि तराजूके एक पल्लेमें सत्य रखें और दूसरेमें तप, शास्त्र इत्यादि तो सत्य- वाला पल्ला नीचेकी ओर झुक जायेगा । जो शास्त्र सत्यको दबाना चाहेगा वह शास्त्र व्यर्थ है। जो ऐसे शास्त्रका अनुसरण करेगा वह आसुरी संकल्पवाला है। जिस तरह सत्य सनातन है, उसी तरह असत्य भी सनातन है। प्रकाश सनातन है, उसी तरह अंधकार भी सनातन है। संग्रहणीय सनातन तो वही है जिसका सत्यके साथ सामं- जस्य हो ।

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रविवार, १७ अक्तूबर, १९२६
 

यदि शास्त्रकी पृष्ठभूमिमें अहिंसा और सत्य न हो तो उसके माध्यमसे हमारा अधःपतन ही हो जाये। पिताने कुऍमें तैरनेके लिए कहा है, डूब मरनेके लिए नहीं, पिता अर्थात् शिष्टाचार । कहा जाता है 'गुरु बिन होय न ज्ञान' । गुरुकी खोज करते