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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हुए ही शिष्टाचारका ज्ञान हो जाता है । इस युगमें किसीको आसानीसे गुरु नहीं मिल सकता । किन्तु यदि हम परमात्माका काम कर रहे हों तो उसमें शिष्टाचार तो होगा ही। इसीलिए कहा गया है कि सभी काम करते हुए भगवानका नाम लेना चाहिए। किन्तु यहाँ यह बताया गया है कि भगवानका नाम लेते हुए वृत्ति कैसी होनी चाहिए। भूत-प्रेतमें श्रद्धा अथवा राक्षसमें श्रद्धा नहीं होनी चाहिए। हमें परोपकारी देवताका ही स्तवन करना चाहिए ।

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः ।

यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु ॥ (१७, ७)

तीन प्रकारके आहार लोगोंको प्रिय लगते हैं। इसी तरह यज्ञ, तप तथा दान भी तीन प्रकारके हैं। तू इनके भेद सुन ।

आयुः सत्त्वबलारोग्य सुखप्रीतिविवर्धनाः ।

रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ॥ (१७, ८)

आयुष्य, सात्विकता, बल, आरोग्य, सुख और रुचिको बढ़ानेवाला, रसयुक्त, चिकना, लम्बे समयतक टिकनेवाला और मनको अच्छा लगनेवाला आहार सात्विक मनुष्यको प्रिय होता है ।

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः ।

आहारा राजसस्पेष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥ (१७, ९)

कटु, खट्टा, खारा, गरमागरम, चरपरा, रूखा तथा कलेजेको जलानेवाला आहार राजसी लोगोंको प्रिय होता है । वह दुःख, शोक और रोग पैदा करनेवाला होता है।

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।

उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ॥ (१७, १०)

अधपका, उतरा हुआ, दुर्गन्धित, बासी, जूठा और अपवित्र भोजन तामसी लोगोंको प्रिय होता है ।

यदि हम इन तीनोंसे चिपककर बैठ जायें तो हमारा काम न चले । सात्विक भोजनके गुण बतानेके बाद रस इत्यादिका वर्णन किया गया है। मोदकप्रिय व्यक्ति लड्डूको सात्विकमें गिनेंगे, किन्तु लड्डू खानेवाला, ब्रह्मचर्यकी रक्षा नहीं कर सकता। रस्य इत्यादिमें विवेकदृष्टि रखनी चाहिए। उस जमानेमें इस प्रकारका भेद बताना आवश्यक रहा होगा । उस जमानेमें भी एक बारमें मुट्ठी-भर मिर्च खा लेनेवाले लोग रहे होंगे। आज तो चिकने पदार्थोंकी जरूरत ही नहीं है। यदि हम इस जमाने में अधिक घी खायें तो वह सात्विक अथवा राजसी न होकर राक्षसी खुराक हो जायेगी । खट्टा, खारा, चरपरा इत्यादि जो कहा है सो ठीक ही है। बासे भोजनके बारेमें भी कहा है। चिल्टन चीज़ (पनीर जिसमें असंख्य जीवाणु होते हैं) पर्युषित अर्थात् बासी खुराक कहलायेगी। दलिया अथवा मुरमुरेको बासी नहीं कह सकते ।