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अफलाकांक्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते ।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ॥ (१७, ११)
फलकी आकांक्षा किये बिना, विधिपूर्वक और कर्त्तव्य मानकर तथा मनःपूर्वक किया गया यज्ञं सात्विक कहलाता है।
अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत् ।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ॥ (१७, १२)
फलकी आकांक्षा रखकर अथवा दम्भके लिए जो यज्ञ होता है, उसे तू राजसी जान ।
विधिहीनमसृष्टानं मन्त्रहीनमदक्षिणम् ।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥ (१७, १३)
जो विधिसे हीन है, जिससे अन्नकी उत्पत्ति नहीं होती, जो मन्त्रहीन है,
जिसमें दक्षिणा नहीं दी जाती और जो श्रद्धाहीन है, ऐसा यज्ञ तामसी कहलाता है।
दक्षिणाका अर्थ है जिसमें पाँच गरीबोंको दान भी न दिया जाये ।
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥ (१७, १४)
जिसमें देव, ब्राह्मण, गुरु और प्राज्ञकी पूजा, पवित्रता तथा सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा भी हो, वह शारीर-तप कहलाता है।
तप वह है जिसमें शारीरिक असुविधा होती हो ।
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् ।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥ (१७, १५)
उद्वेग उत्पन्न न करनेवाला तथा प्रिय लगनेवाला, हितकारी वचन तथा स्वाध्याय और अभ्यास - ये वाणीके तप कहलाते हैं ।
मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः ।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥ (१७, १६)
जिसमें मनकी प्रसन्नता है, शान्ति है, मौन और आत्मनिग्रह है, अन्तःशुद्धि है, वह मानसिक तप है।
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः ।
अफलाकांक्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ॥ (१७, १७)
परम श्रद्धायुक्त होकर, फलकी आकांक्षा रखे बिना किये गये उक्त तीन प्रकारके तप ही सात्विक तप हैं ।