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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत् ।

क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् ॥ (१७, १८)

कोई हमारा सत्कार करे, हमें मान दे और हमारी पूजा करे, ऐसी इच्छासे तथा दम्भपूर्वक किया गया तप अस्थिर और अनिश्चित होता है तथा राजस कहलाता है।

मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः ।

परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ॥ (१७, १९)

मूढ़तापूर्ण दुराग्रहके साथ, स्वयं अपनेको और दूसरोंको पीड़ा पहुँचाते हुए जो तप किया जाता है वह तामसी तप कहलाता है। जो व्यक्ति सौ दिनोंतक उपवास करता है अथवा एक पाँवपर खड़ा रहता है वह व्यक्ति सात्विक तप नहीं करता, बल्कि तामसी तप करता है ।

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बुधवार, २० अक्तूबर, १९२६
 

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।

देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्विकं स्मृतम् ॥ (१७, २०)

जो इस भावसे दिया गया हो कि दिया ही जाना चाहिए; तथा जो ऐसे व्यक्तिको दिया गया हो जिसमें बदला चुकानेकी शक्ति न हो; तथा जो देश, काल और पात्र देखकर दिया जाता है, वह दान सात्विक कहलाता है।

जो दान किसी एक समय दातव्य है, वह सदा ही दातव्य हो, ऐसा नहीं है । ऐसा ही पात्रके विषयमें भी है। किसी बिलकुल ही अपंग व्यक्तिको भोजन देना ठीक है। किन्तु मान लीजिए कि कोई अंधा आदमी ज्वरसे पीड़ित है और भीख माँग रहा है, उस समय यदि हम उसे भोजन दे दें तो यह अपात्रको देने सरीखा होगा । इसी तरह यदि हम उसे कम्बल दे दें और वह उसे बेच दे तब भी वह अपात्रको दिया गया दान कहलायेगा । कहीं अन्नदान तो कहीं दूसरा कोई दान, और तीसरी जगह तीसरा ही कोई दान उपयुक्त हो सकता है। सिद्धान्त तो एक ही है; किन्तु देश, काल और पात्रके अनुसार उसका अमल परिवर्तित होते रहना चाहिए। ऐसा ही यज्ञके विषयमें भी ।

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः ।

दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥ (१७, २१)

जो दान बदलेकी इच्छासे दिया जाता है अथवा फलकी इच्छासे दिया जाता है अथवा मनमें कुड़कुड़ाते हुए दिया जाता है, वह राजस दान है।

अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते ।

असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ॥ (१७, २२)

देश, काल अथवा पात्रका विवेक किये बिना, अपमान अथवा अवज्ञा करते हुए दिया गया दान तामसी कहलाता है।