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'गीता-शिक्षण'

ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः ।

ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ॥ (१७, २३)

ब्रह्म 'ॐ तत्सत्' इन तीन शब्दोंके द्वारा निर्दिष्ट किया जाता है और इसलिए इसी निर्देशसे पूर्वकालमें ब्राह्मण, वेद और यज्ञ विहित हुए ।

तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः ।

प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ॥ (१७, २४)

इसलिए ब्रह्मवादी ॐ शब्दका उच्चारण करते हुए यज्ञ, दान और तपकी क्रियाओंको सदा विधिवत् करते हैं।

ब्रह्मके जिज्ञासुगण समस्त यज्ञ, दान और तप कृष्णार्पण करते हैं। इन्हें वे 'हरि 'के नामसे करते हैं, ॐ के नामसे करते हैं ।

तदित्यनभिसंघाय फलं यज्ञतपः क्रियाः ।

दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकांक्षिभिः ॥ (१७, २५)


मोक्षार्थी 'तत्' शब्दका उच्चारण करके फलकी आशा रखे बिना यज्ञ, दान तथा तपकी क्रियाएँ करते हैं ।

सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते ।

प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥ (१७, २६)

सद्भाव और साधुभावमें सत् शब्दका प्रयोग होता है। प्रशस्त अर्थात् अच्छे कर्मोंमें भी सत् शब्दका प्रयोग किया जाता है।

यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते ।

कर्म चैव तदर्थोयं सदित्येवाभिधीयते ॥ (१७, २७)

ॐ उक्त सभी कार्योंके आरम्भमें है और सत्में उसकी स्थिति है। यज्ञ, दान आदिमें यदि हम दृढ़ताकी इच्छा करते हों तो ओंकार उनका आरम्भ है और सत् स्थितिका सूचक है। सत् स्थितिका वाचक है और हरिका भी वाचक है । ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या ' यह वचन भी इसी अर्थमें कहा गया है।


अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।

असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥ (१७, २८)

जो यज्ञ, दान अथवा तप अश्रद्धासे किया गया हो, वह असत् है। वह न इस लोकमें कामका है, न परलोकमें। 'ॐ तत्सत्' का अर्थ यह हुआ कि जो-कुछ है, वह ॐ है। मैं तो मिथ्या हूँ ।

केवल खुदा है। दूसरा कोई भी नहीं है। हम सब मिथ्याके पीछे दौड़ रहे हैं। आहार भी सात्विक वृत्तिसे किया जाना चाहिए। अनेक व्यक्ति जो खाते हैं, ईश्वर-प्रीत्यर्थ खाते हैं। इस जगत्‌में मुझे शून्य होकर रहना है, संसार भले ही हमें एक जगहसे दूसरी जगह गेंदकी तरह ठुकराता रहे; किन्तु स्वयं हम इस तरह ठुक-