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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

राये जानेकी इच्छा न करें। विद्या, शरीरबल और धन सभीका उपयोग हमें दूसरेके लिए करना है; [ और यह भी ] मैं अच्छा कहलाऊँ, इस दृष्टिसे नहीं । इसलिए 'ॐ तत्सत्' नम्रताकी प्रतिज्ञा है। इसमें अभिप्राय अपनी तुच्छताके अनुभव करनेका है। इसमें अहंकारहीनता भी है । यदि इमाम साहब इसका उच्चारण करें तो यह उनका कलमा ही है।

[ १८९]

गुरुवार, २१ अक्तूबर, १९२६
 

सतरहवें अध्यायमें दान, श्रद्धा, तप आदिके तीन विभाग बतलाये गये हैं। इसे केवल दृष्टान्तके रूपमें ही समझा जाना चाहिए। हम इनके चाहे जितने विभाग कर सकते हैं। इसमें केवल इतना ही सूचित किया गया है कि सारे जगत्के ऊपर तीन गुणोंकी शक्ति चल रही है। बरतन एक जड़ पदार्थ है किन्तु जिस तरह उसमें वायु भरी हुई है, उसी प्रकार वस्तु-मात्र चेतनसे परिपूर्ण है । तीन गुणोंसे परे जो वस्तु है, वह ईश्वर है। उसमें हमें लीन हो जाता है । सात्विकसे सात्विक बन जानेपर भी कुछ-न-कुछ राजसी अथवा तामसी तत्त्व हममें बच ही रहेगा। किन्तु इसकी चिन्ता न करते हुए हमें अपने भीतर सात्विक तत्त्वका ही विकास करते जाना चाहिए। क्योंकि कमसे-कम उत्तेजना देनेवाली और शक्तिका अपव्यय न करनेवाली वृत्ति सात्विक है। जनकके भी जबतक देह था, तबतक वे विदेह कहलाते अवश्य थे किन्तु उनके और हमारे बीचका अन्तर प्रमाणका ही है। हाँ, देहपात होनेके बाद उन जैसोंको पुनर्जन्म शेष नहीं बचता।

अध्याय १८

अब अठारहवें अध्यायमें अर्जुन श्रीकृष्णसे संन्यास और त्यागका अंतर स्पष्ट करनेकी प्रार्थना करता है। वह कहता है:

संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।

त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥ (१८, १)

हे महाबाहो, मैं संन्यासका तत्त्व जानना चाहता हूँ, मुझे त्यागका तत्त्व भी पृथक् रूपसे बताइए । भगवान उत्तर देते हैं :

काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः ।

सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ॥ (१८, २)

काम्य कर्म अर्थात् जिनके विषयमें अनेक इच्छाएँ होती रहती हैं ऐसे कर्मोंके त्यागको ज्ञानी संन्यास कहते हैं और स्याने लोग सभी कर्मोके फलके त्यागको त्याग कहते हैं ।

१. अब्दुल कादिर बावजीर ।