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'गीता-शिक्षण'

इन दोनोंमें कोई भेद हो, ऐसा नहीं है। काम्य कर्मोंका अर्थ सभी कर्म जान पड़ता है। किन्तु मुझे इस अर्थका निश्चय नहीं है। कर्मोका सर्वथा त्याग सम्भव नहीं हो सकता। इसलिए कर्म मात्रका त्याग संन्यास और त्यागका अर्थ फलत्याग हुआ ।

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शुक्रवार, २२ अक्तूबर, १९२६
 

कल मैंने काम्य कर्मका अर्थ सभी कर्म किया । सुरेन्द्रने मुझे विनोबा द्वारा किये गये अर्थकी याद दिलाई। अर्थात् वह कर्म जो किसी निश्चित हेतुसे किया गया हो । किन्तु हेतु तो हरएक कर्मका होता ही है । यह अलग बात है कि हम उस उद्देश्यके प्रति तटस्थ रहें । किन्तु हेतुकी दिशामें प्रयत्न तो करना पड़ता ही है । स्वयं देह होना भी कर्म है । देहके रहते हुए भी हम देहके प्रति निश्चिन्त अवश्य रह सकते हैं ।

त्याज्यं दोषवदित्यके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ।

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ॥ (१८, ३)

कुछ लोग कहते हैं कि कर्म-मात्र दोषयुक्त है, इसलिए कर्म त्याज्य है । कुछ लोग कहते हैं कि यज्ञ, दान, तप इत्यादि कर्म त्याज्य नहीं हैं ।

निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम ।

त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः संप्रकीर्तितः ॥

यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।

यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥ (१८, ४-५)

इस विषयमें मेरा निश्चय सुन । हे भरतसत्तम, हे पुरुषव्याघ्र, त्याग तीन प्रकारका कहा गया है। यज्ञ, दान, तप आदि कर्म त्याज्य नहीं है क्योंकि यज्ञ, दान और तप मनुष्योंको पवित्र बनानेवाले कर्म हैं ।

एतान्यपि तु कर्माणि संगं त्यक्त्वा फलानि च ।

कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ॥ (१८, ६)

इन कर्मोंको भी संग और फल छोड़कर करना चाहिए। इसलिए मेरा निश्चित और उत्तम मत है कि इस तरह समझकर कर्म किये जाने चाहिए ।

नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।

मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ॥ (१८, ७)

नियत कर्म अर्थात् शास्त्रों में कहे गये नित्य कर्मोका संन्यास नहीं किया जा सकता। मोहसे उनका त्याग करना तामस् त्याग कहलाता है।