पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/३६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३३२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् ।

स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ॥ (१८, ८)

कर्म दुःखकारक है ऐसा मानकर यदि उसका त्याग कायाके कष्ट-भयसे किया गया हो, तो वह राजस त्याग है। ऐसे व्यक्तिके त्यागके फलका लाभ नहीं मिलता।

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन ।

संग त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ॥ (१८, ९)


जो व्यक्ति ऐसा मानकर कि कर्म किया ही जाना चाहिए उसके संग और फलका त्याग करता है, सात्विक त्यागी है।

न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।

त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ।। (१८, १०)

अमुक कर्म अशुभ है ऐसा सोचकर जो द्वेष नहीं करता, और शुभ है ऐसा विचार कर जो उसके प्रति मोहित नहीं होता, और कर्म करता रहता है; ऐसा मनुष्य संशय-रहित हो गया है, शुद्ध भावनायुक्त है तथा त्यागी और बुद्धिमान है।

न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः ।

यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागोत्यभिधीयते ॥ (१८, ११)

देहधारीके द्वारा कर्मका सर्वथा त्याग किया जाना असम्भव है। इसलिए जो व्यक्ति कर्मके फलका त्याग करता है वही त्यागी कहा जाता है ।

जब हम समस्त कर्मोके फलका त्याग करनेका निश्चय कर चुकेंगे, तब हम वे कर्म किया करेंगे जो हमारे कर्त्तव्य-कर्म हैं। इससे पहलेके श्लोकमें संन्यासकी जो बात कही गई है वह तो कविने इसी अर्थमें कही है कि कर्म-मात्रका त्याग किया जाना चाहिए। मेरा और तेरा छोड़कर काम करना चाहिए; सत्रहवें अध्यायका यही तात्पर्य है। मेरे और तेरेका भेद जिस स्थितिमें अधिकसे-अधिक मिट जाता है वह सात्विक स्थिति है। देहवारीके लिए कर्मका सर्वथा त्याग अशक्य है। देहाध्यास तो मरण-पर्यन्त टिकनेवाला है। समाधिस्थ पुरुष इतना कर सकता है कि स्टेथसकोपमें भी उसके हृदयकी धड़कन सुनाई न पड़े। योगाभ्यासी कहते हैं कि जीव थोड़ी देरके लिए इस पिंजरेको छोड़कर भी जा सकता है। किन्तु किसलिए? इसमें सन्देह नहीं कि यदि हम इच्छा करें तो अपनी नाड़ीकी गति कम कर सकते हैं। सच तो यह है कि यदि किसी योगीने वास्तवमें ऐसी इच्छा की हो कि जीव मन, वचन और देह छोड़कर चला जाये तो संभव है। मुझे इसमें कोई सन्देह नहीं है कि यदि हम देहको टिकाये न रखना चाहें तो वह नष्ट हो ही जाये। किन्तु देह- त्यागकी हमारी इच्छा इतनी तीव्र नहीं होती। क्योंकि सुईकी नोक चुभ जाये तो हमें उसका भी अनुभव होता है। रामदास स्वामी-जैसे व्यक्ति किसी दूसरेके शरीरमें प्रवेश करके उसके दुःखका अनुभव कर सकते हैं, किन्तु सारे ही शरीरोंके दुःखका अनुभव उन्हें नहीं हो सकता। अलबत्ता, वे उसकी कल्पना कर सकते हैं। इसलिए