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'श्रीमद् राजचन्द्र' की भूमिका

नहीं कह सकता। कोई-कोई धर्मके नामपर उन्हें धोखा दे जाते थे। ऐसे उदाहरण नियमकी अपूर्णता नहीं सिद्ध करते, बल्कि यह सूचित करते हैं कि सम्पूर्ण शुद्ध ज्ञान कितना दुर्लभ है।

इन अपवादोंके बावजूद व्यवहारकुशलता और धर्मपरायणताका जैसा सुन्दर मेल मैंने कविमें देखा वैसा किसी अन्यमें नहीं।

प्रकरण ५ : धर्म

इससे पहले कि हम धर्मके बारेमें रायचन्दभाईकी मान्यतापर विचार करें, धर्मके स्वरूपका उन्होंने जो निरूपण किया है उसे देख जाना महत्त्वपूर्ण है।

धर्म अर्थात् अमुक मत-मतान्तर नहीं। धर्मका अर्थ शास्त्रके नामसे जानी जाने-वाली पुस्तकोंको पढ़ना या रट डालना या उनमें कही हुई सब बातोंको मानना भी नहीं है।

धर्म आत्माका गुण है और यह दृश्य अथवा अदृश्य रूपमें मनुष्य मात्रमें विद्यमान है। धर्मके द्वारा हम मानवजीवनके कर्त्तव्यके बारेमें जान सकते हैं, इसके द्वारा हम दूसरे जीवोंके प्रति अपने सच्चे सम्बन्धको जान सकते हैं। और स्पष्ट है कि ये दोनों बातें तबतक सम्भव नहीं हैं जबतक हम अपनेको न पहचान लें। इसलिए धर्म वह साधन है जिसके द्वारा हम अपने आपको पहचान सकते हैं।

यह साधन हम जहाँसे मिले वहाँसे ले सकते हैं, फिर चाहे वह भारतवर्ष में मिले अथवा यूरोपसे आये अथवा अरबसे। जिन लोगोंने विभिन्न धर्मोके शास्त्रोंका अध्ययन किया है वे यही कहेंगे कि इस साधनका सामान्य स्वरूप सब धर्म-शास्त्रोंमें एक ही है। असत्य बोलना चाहिए अथवा उसका आचरण करना चाहिए, ऐसा कोई शास्त्र नहीं कहता। हिंसा करनी चाहिए, यह बात भी कोई शास्त्र नहीं कहता। सारे शास्त्रोंका दोहन करके शंकराचार्यने "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या" कहा। 'कुरान शरीफ' ने इसी बातको दूसरी तरह कहा, 'ईश्वर एक है और केवल वही है, उसके बिना और कुछ नहीं है।" 'बाइबिल' में कहा गया है कि "मैं और मेरा पिता एक ही है।" ये सब एक ही सत्यके रूपान्तर हैं। लेकिन इसी एक सत्यका विकास करनेमें अपूर्ण मनुष्योंने अपने-अपने दृष्टिकोणका प्रयोग कर हमारे लिए जो मोहजाल रचा है उसमें से हमें निकलना ही होगा। हम जो स्वयं अपूर्ण हैं, अपनेसे कम अपूर्ण व्यक्तियोंकी मदद ले कर आगे बढ़ते हैं और ऐसा मानते हैं कि अमुक सीमातक जानेके बाद आगे बढ़नेका कोई रास्ता ही नहीं है। हकीकत में ऐसा कुछ नहीं है। अमुक सीमाके बाद शास्त्र सहायता नहीं करते, अनुभव करता है। इसीलिए रायचन्द भाईने गाया है।

जिस पदको श्रीसर्वज्ञने ध्यानमें देखा
शब्दों में जिसका वर्णन श्री भगवन्त नहीं कर सके।
मुझे उसी परमपद प्राप्तिकी धुन लगी है;