हम तो इतना ही कर सकते हैं कि अहंकारकी जिनमें गंध आये, हम उन कामोंको छोड़ते जायें।
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हरिश्चन्द्रका उदाहरण त्यागका उदाहरण है । कुशल हो अथवा अकुशल, चाहे जैसा काम आ पड़नेपर वे उसे समान रूपसे करनेके लिए तैयार रहते थे ।
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् ।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित् ॥ ( १८, १२)
कर्मका फल तीन प्रकारका वर्णित है, अनिष्ट, इष्ट और मिश्र । जिसने त्याग नहीं किया, उसे मरनेके बाद यह फल मिलता है, किन्तु संन्यासीको कभी नहीं मिलता ।
पंचैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे ।
सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ।। (१८, १३)
हे महाबाहो, सभी कर्मोकी सिद्धिके लिए सांख्यवादमें जो पाँच कारण कहे गये हैं, उन्हें तू जान ।
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् ।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा देवं चैवात्र पंचमम् ।। ( १८, १४)
ये पाँच कारण हैं : क्षेत्र, कर्त्ता, तरह-तरह के साधन, अलग-अलग तरहकी क्रियाएँ और पाँचवाँ दैव । जब भाग्य पक्षमें नहीं रहा, तब वही धनुष और वही बाण होते हुए भी अर्जुन भीलोंसे लुट गया ।
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः ।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पंचैते तस्य हेतवः ॥ (१८, १५)
व्यक्ति शरीर, वाणी और मनके द्वारा कुछ भी काम क्यों न करना चाहे, उसके कार्य-हेतु उक्त पाँच होते हैं, फिर वह कार्य न्याययुक्त हो अथवा उसके विपरीत ।
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः ।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ॥ (१८, १६)
ऐसा होते हुए भी जो व्यक्ति कार्याकार्यका विवेक करनेमें असमर्थ बुद्धि होनेके कारण अपनेको ही कर्त्ता मानता है, वह दुर्मति है ।
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमांल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥ (१८, १७)
जिस मनुष्यमें अहंकार भाव नहीं है, जिसकी बुद्धि भ्रष्ट नहीं हुई है, वह व्यक्ति मारता हुआ भी लोगोंको नहीं मारता इसलिए बन्धनमें नहीं पड़ता ।