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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यदि में. के हाथमें पत्थर देकर उसे. को मारनेके लिए प्रेरित करूं तो यह पाप उसका होगा अथवा मेरा । अर्जुन द्वारकासे कृष्णको खींचकर ले आया और अब कहता है कि मैं नहीं लडूंगा । यह कैसे हो सकता है ? कृष्ण कहता है : मैं तुझसे कहता हूँ कि लड़। फिर भला अर्जुनको उसमें अपने लिप्त होनेका डर किसलिए? हरिश्चन्द्रकी तलवार हरिश्चन्द्रकी नहीं थी, काशिराजकी थी। हरिश्चन्द्र चाहता तो सत्याग्रह कर सकता था, किन्तु वहां तारामती थी, इसलिए क्या यह योग्य होता ! जहाँ स्वार्थकी बात हो, वहाँ प्राप्त कार्य करने योग्य हो अथवा न हो वह किया ही जाना चाहिए। यदि स्वार्थकी बात न होती, प्रश्न उसकी रानीका न होता, और उसे इस कामके प्रति घृणा उपजती तथा उसका हाथ ही ऊपर न उठता, तो वह सत्याग्रह कर सकता था।

सतही ढंगसे पढ़ें तो यह श्लोक आदमीको भ्रममें डाल देनेवाला है। इसका सटीक नमूना जगत्में नहीं मिलेगा । जिस तरह रेखागणितमें काल्पनिक आदर्श आकृ- तियोंकी जरूरत है, उसी प्रकार व्यावहारिक मामलोंमें धर्मकी बात करते हुए काल्पनिक आदर्शोंकी जरूरत पड़ती है। इसलिए इस श्लोकका ऐसा अर्थ किया जा सकता है कि जिसकी अहंता नष्ट हो गई है और जिसकी बुद्धिमें मलिनता लेशमात्र भी नहीं बची है, कहा जा सकता है कि वह सारे जगत्को मार डाल सकता है – क्योंकि जिसमें अहंता नहीं है, उसके शरीर ही नहीं है। जिसकी बुद्धि विशुद्ध है, वह त्रिकालदर्शी है। यह पुरुष तो भगवान ही हुआ । वह करता हुआ भी कुछ नहीं करता और मारता हुआ भी नहीं मारता; वह अहिंसक है। इस तरह आदमीका तो एक ही धर्म है - अहिंसा तथा शिष्टाचार अर्थात् शास्त्रके मार्गका अनुसरण ।

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना ।

करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः

कर्मकी प्रेरणा तीन प्रकारकी है ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता । करण, कर्म और कर्ता इन तीन वस्तुओंसे कर्मका समुदाय बनता है। उदाहरणके लिए स्वराज्य लेनेकी आवश्यकताकी प्रतीतिको ज्ञान और जो उसे लेना चाहता है उस व्यक्तिको परिज्ञाता कहेंगे। किन्तु स्वराज्य इतनेसे ही नहीं मिल जाता । स्वराज्यकी प्रवृत्तिका साधन भी तदनुसार होना चाहिए। किसी भी हलचलके विषयमें यही बात घटाई जा सकती है।

ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः ।

प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि ॥ (१८, १९)

ज्ञान, कर्म और कर्त्ता भी गुण-भेदके प्रमाणसे तीन प्रकारके हैं। गुणोंके विवेचनमें इनका वर्णन जिस प्रकार किया जाता है, वह तू मुझसे सुन ।

१, २. साधन-सूत्रमें व्यक्तियों के नाम छोड़ दिये गये हैं।

३. अभिप्राय यह है कि एकमात्र धर्म अहिंसा है। प्राप्त कर्मको निर्लिप्त भावसे करें तो वह हिंसा-कार्य होकर भी अहिंसा ही बना रहेगा।