सर्वभूतेषु यनक भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥ (१८, २०)
जिस ज्ञानके द्वारा व्यक्ति सर्वभूतोंमें एक ही अविनाशी भावको देखता है और विविधतामें एकताके दर्शन करता है, वह सात्विक ज्ञान है।
इस जगतमें जो विभिन्न वस्तुएँ दिखाई देती हैं, वे वास्तवमें विभिन्न नहीं हैं। यदि हमारी आँखका पीलिया रोग दूर हो जाये तो हमें सारी वस्तुएँ अविभक्त दिखने लगेंगी ।
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान् ।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् ॥ (१८, २१)
जो ज्ञान अलग-अलग भावसे अलग-अलग वस्तुओंको अलग-अलग रीतिसे देखता है, समस्त प्राणियोंका वह ज्ञान राजस है।
मैं, मेरा और इन दोनोंसे बाहर; राजस् भावसे ऐसे तीन विभाग हो जाते हैं। राग-द्वेष इसी कारण उत्पन्न होता है। सात्विक स्थितिमें राग-द्वेषको स्थान नहीं होता ।
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम् ।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम् ॥ (१८, २२)
तामस ज्ञान सभी कामोंमें आसक्तियुक्त, अहेतुक, तत्त्वार्थको न जाननेवाला और अल्प होता है ।
तामस ज्ञान विचारोंकी खिचड़ी बना लेता है और मानता है कि ईश्वर-जैसी कोई चीज है ही नहीं ।
नियतं संगरहितमरागद्वेषतः कृतम् ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ॥ (१८, २३)
आसक्ति तथा राग-द्वेषसे हीन और फलकी इच्छा रखे बिना किया गया नियत कर्म सात्विक कहलाता है।
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः ।
क्रिपते बहुलायासं तव्राजसमुदाहृतम् ॥ (१८, २४)
कामना अथवा अहंकारसे किया गया कर्म और जिसमें बहुत प्रयत्न किया जाता है, राजस् कर्म है।
सात्विक व्यक्ति कामोंकी खोजमें नहीं घूमता । राजसी व्यक्ति आज विमानका आविष्कार करता है, कल विलायतसे यहाँ पाँच घंटेमें आ पहुँचनेकी कोशिश करता
१. युक्तिरहित ।
२. यथार्थ अर्थ अथवा शेष रहस्यको न जाननेवाला ।
३. अल्पविषयत्वाद् अफलत्वाद्वा । - शांकरभाग्य