पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/३६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३३८
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यया तु धर्मकामार्थान्कृत्या धारयतेऽर्जुन ।

प्रसंगेन फलाकांक्षी धृतिः सा पार्थ राजसी ॥ (१८, ३४)

जो धृति फलकी आशा रखती है और जो धर्म, काम तथा अर्थका मनन करती है, वह धृति राजसी है ।

पहले प्रकारकी धृतिमें ईश्वरपरायणता है और दूसरीमें आसक्ति; वह आसक्ति- पूर्वक धर्म, अर्थ और कामको प्राप्त करनेकी इच्छा करती है। इस प्रकारसे किया हुआ निर्णय, अयोग्य निर्णय हो सकता है।

यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च ।

नविमुंचति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी ॥ (१८, ३५)

जिस वृतिके द्वारा दुर्बुद्धि मनुष्य स्वप्न, भय, शोक, विषाद और मदका त्याग करता ही नहीं है, वह तामसी वृति है।

हम जो कुछ करते हैं, उस सबमें मोह और शोक होता है; निराशा तथा भय तो निश्चयपूर्वक होता है।

सुखं त्विदानीं त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ ।

अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ॥

यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।

तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ॥ (१८, ३६-३७)

सुख भी तीन प्रकारका है । जिसका अभ्यास करते-करते व्यक्ति आनन्द पाने लगता है, जिसके द्वारा दुःखका अन्त हो जाता है।

जो आरम्भमें विष जैसा लगता है, परन्तु जो परिणाममें अमृत जैसा होता है,

वह सुख सात्विक है। वह आत्मज्ञानके प्रसादसे उत्पन्न होता है । यह सुख प्राप्त करनेके लिए तपश्चर्या करनी चाहिए । इसमें त्याग निहित है, इसलिए आरम्भमें कष्ट होता है । इसके अभ्यासमें, पठन-पाठनमें भी निद्रा और आलस्य छोड़ना पड़ता है, परिश्रम करना होता है, यह सब तपश्चर्या है । किन्तु इसका अन्त आत्मज्ञान है । जैसा आत्मा वैसा आत्मानन्द । देहानन्द केवल विकार- मय है । उसका आधार विकारपर है, इसलिए वह क्षणिक है । वह पतंग अथवा बिजलीकी तरह क्षणिक है जब कि आत्मानन्द शाश्वत है । आत्मज्ञानके प्रसादसे उत्पन्न सुख अमृतमय है ।

विषयेन्द्रिय संयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।

परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥ (१८, ३८)

विषयेन्द्रियोंके संयोगसे जो सुख आरम्भमें अमृत-जैसा लगता है, किन्तु जो परिणाममें विषके समान होता है, वह सुख राजस् कहा गया है ।

नाटक इत्यादि देखने गये तो उसे देखते हुए सुख होता है। किन्तु बादमें निद्रा बेचकर मिलता है जागरणका दुःख; और उसका मनपर होनेवाला जो असर है, सो अतिरिक्त ही ।