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'गीता-शिक्षण'

यदग्रे चानुबन्धं च सुखं मोहनमात्मनः ।

निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ॥ (१८, ३९)

जो आरम्भ और परिणाम दोनोंमें हमें मोहमें डालनेवाला है और जो निद्रा, आलस्य और प्रमादसे उत्पन्न हुआ है, वह तामस सुख कहलाता है।

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः ।

सत्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात् त्रिभिर्गुणैः ॥ (१८, ४०)

पृथ्वीपर अथवा स्वर्गमें देवताओंतक में ऐसा कोई नहीं है जो प्रकृतिजन्य इन तीनों गुणोंसे मुक्त हो ।

इसलिए हमें इनसे मुक्त होनेका प्रयत्न करना चाहिए ।

[ १९४]

गुरुवार, २८ अक्तूबर, १९२६
 

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप ।

कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवर्गुणैः ॥ (१८, ४१)

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंके कर्मोको भी उनके स्वभावके अनुसार विभाजित किया गया है ।

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥ (१८, ४२)

शान्ति, इन्द्रियोंका दमन, तप अर्थात् शरीर, वाणी और मनको कष्ट देकर उन सबको सीधा रखना, पवित्रता, क्षमा अर्थात् पत्थर मारनेवालेके प्रति भी अन्तःकरणपूर्वक कल्याणकी कामना रखना, सरलता अर्थात् आँखमें मैल न रखना, सीधे रास्ते चलना, ज्ञान और अनुभव-ज्ञान, कोरा शास्त्र ज्ञान या शुष्क ज्ञान नहीं, और आस्तिकता, ये ब्राह्मणके स्वभावजन्य कर्म हैं ।

किसी व्यक्तिमें उपरोक्त गुणोंके साथ-साथ यदि आस्तिकता, श्रद्धा, भक्ति न हों तो उक्त गुण हानिकारक भी हो सकते हैं। जैसे आज पाश्चात्य देशोंमें इनाम पानेके लिए, कुश्ती लड़नेके लिए शरीरका विकास किया जाता है । इन्द्रियदमन तो इन व्यक्तियोंको भी करना पड़ता है, किन्तु इस प्रकारके इन्द्रिय-दमनमें ईश्वर भक्तिका कोई स्थान नहीं है, इसलिए वह किसी कामका नहीं है । आस्तिकता, ईश्वर भक्ति, ब्राह्मणके लक्षणमें मुख्य होनी चाहिए।

शौयं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।

दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥ (१८, ४३)

शौर्य, तेज, धैर्य, दक्षता, युद्धसे न भागना, दान अर्थात् गरीबकी मददके लिए सदा तत्परता और ऐश्वर्य -- ये क्षत्रियके स्वभावजन्य कर्म हैं।

१. इस दिनका विवरण महादेवभाईने नहीं लिखा था।