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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ये सारे गुण ब्राह्मणमें तो होते ही हैं; जैसे वशिष्ठ आदिमें ये गुण थे। इसी प्रकार क्षत्रियमें ब्राह्मणके गुण भी होने चाहिए, जैसे युधिष्ठिर, रामचन्द्र आदि क्षत्रिय थे, फिर भी उनमें ब्राह्मणके गुण थे। भरत तो साक्षात् ब्राह्मणत्वकी मूर्ति ही थे । इस तरह प्रत्येक वर्णके व्यक्तिमें चारों वर्णोंके सभी गुण कम-ज्यादा परिमाणमें होने ही चाहिए। अन्तर इतना ही है कि जिसमें जिस वर्गके मुख्य लक्षण होंगे, वह उस वर्णका माना जायेगा। उनके स्वाभाविक कर्मोंको भी उसी तरह समझना चाहिए।

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।

परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्

खेती, गोरक्षा और वाणिज्य -- ये वैश्योंके स्वभावजन्य कर्म हैं। शूद्रका स्वभाव- जन्य कर्म सेवा है।

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धि लभते नरः ।

स्वकर्मनिरतः सिद्धि यथा विन्दति तच्छृणु ॥ (१८, ४५)

अपने-अपने कामोंमें लीन व्यक्ति सिद्धिको प्राप्त करते हैं। अपने कामोंमें लगा हुआ मनुष्य सिद्धि किस प्रकार प्राप्त करता है, इसको सुन ।

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानवः ॥ (१८, ४६)

जिसके बलपर प्राणियोंकी प्रवृत्ति चल रही है और सारा जगत् जिससे व्याप्त है, उसे जो व्यक्ति अपने कर्मके माध्यमसे भजता है, वह परमसिद्धि पाता है ।

जो सर्वस्थानोंमें ओतप्रोत है, ताने-बानेकी तरह फैला हुआ है, जो व्यक्ति उस आत्मा, ब्रह्म, ईश्वरकी पूजा करता है, वह सिद्धिको प्राप्त करता है । जो अपने कर्त्तव्य कर्मको ही सच्ची प्रार्थना अथवा पूजा मानता है और जिसने सेवा तथा अपने प्रत्येक कर्मको प्रार्थनामय बना डाला है, वास्तविक सिद्धि उसीको मिलती है।

श्रेणान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥ (१८, ४७)

भली-भाँति आचरित परधर्म (अर्थात् दूसरेके कर्त्तव्य-कर्म) की अपेक्षा गुणरहित तथापि अपना धर्म (अर्थात् अपना कर्त्तव्य कर्म) श्रेष्ठ है । क्योंकि स्वभावसे नियत किये गये स्वधर्मरूपी कर्मको करनेमें मनुष्य पापसे लिप्त नहीं होता ।

सहज कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ।

सर्वारम्भा हि दोषेण घूमेनाग्निरिवावृताः ॥ (१८, ४८)

सहज ही प्राप्त कर्म (अर्थात् जिसे स्वयं हमने खोजकर प्राप्त नहीं किया है, जो हमपर आ पड़ा है,) दूषित हो तो भी त्याग करने योग्य नहीं है। अग्निके साथ जिस तरह धुआँ रहता ही है इसी प्रकार किसी भी कर्मके आरम्भमें दोष तो रहता ही है ।