पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/३६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३४१
'गीता-शिक्षण'

यहाँ चोरी आदि कर्मोकी बात नहीं कही गई है, बल्कि ऊपर चार वर्णोंके जो स्वाभाविक कर्म बताये गये हैं, उनकी बात की गई है। इनमें कुछ-न-कुछ दोष दृष्टिगोचर होता है। जैसे सज्जनोंकी ममताका दोष अर्जुनको युद्ध करनेसे रोक रहा था । फिर भी उस कर्मको करना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि कर्म-मात्र, सभी प्रकारके आरम्भ, किसी-न-किसी दोषसे युक्त हैं ।

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः ।

परमां संन्यासेनाधिगच्छति ।। (१८, ४९)

जिसने सभी कर्मोंमें से आसक्ति खींच ली है अर्थात् जो संगरहित हो गया है, जिसने मनको जीत लिया है, जिसने समस्त इच्छाओंको छोड़ दिया है, वह संन्यासके द्वारा नैष्कर्म्य रूपी परमसिद्धिको प्राप्त करता है ।

यहाँ संन्यासका अर्थ कर्म-मात्रका त्याग नहीं; बल्कि यहाँ कर्मके फल-मात्रका त्याग सूचित किया गया है। यही सिद्धिदायक है।

सिद्धि प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे ।

समासेनव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥ (१८, ५०)

सिद्धि प्राप्त कर लेनेके पश्चात् मनुष्य ब्रह्मको किस तरह प्राप्त करता है सो तू संक्षेपमें सुन । ज्ञानकी ऐसी निष्ठा ऊँचेसे-ऊँची है।

[ १९५ ]

शुक्रवार, २९ अक्तूबर, १९२६
 

बुढ्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च ।

शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ॥

विविक्तसेवी लध्वाशी यतवाक्कायमानसः ।

ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुताश्रितः ॥

अहंकारं बलं दर्प कामं क्रोधं परिग्रहम् ।

विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ (१८, ५१-५३)

जो शुद्ध बुद्धिके युक्त हो गया है, जिसने अपने ऊपर दृढ़तापूर्वक वश प्राप्त कर लिया है, जिसने ज्ञानेन्द्रियोंके द्वारा इन्द्रियोंके शब्दादि विषयोंका त्याग कर दिया है, जिसने राग-द्वेष जला डाले हैं, जो एकान्तसेवन करनेवाला है, जो अल्पाहारी है, जिसने वाणी, काया और मनपर वश कर लिया है; जो ध्यानयोगपरायण है, जो भली प्रकार वैराग्यको अपना आधार बना चुका है और जो अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध तथा परिग्रहको छोड़कर निर्मल और शान्त हो गया है, वह ब्रह्मको पानेके योग्य हो जाता है।

अहंकार, बल, दर्प ये सभी एक-दूसरेमें व्याप्त हो सकनेवाले तत्त्व हैं। किन्तु 'गीता' एकका उपयोग करके नहीं मानती। वह तो एक-एक-वस्तुको अनेक भाँतिसे