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'गीता-शिक्षण'

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि ।

अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनंक्ष्यसि

अपने चित्तको मुझमें लीन करके तू मेरी कृपासे सारे पहाड़ पार कर जायेगा । किन्तु यदि तू अहंकारके वश होकर मेरी बात नहीं सुनेगा, तो तेरा नाश हो जायेगा ।

यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।

मिथ्यंष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ॥ (१८, ५९)

यदि तू अहंकारके वश होकर न लड़नेका निर्णय लेगा तो तेरा वह व्यवहार मिथ्या होगा, ऐसा मान । प्रकृति ही तुझे वहाँ ले जायेगी ।

स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा ।

कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत् ॥ (१८, ६०)

यदि तू मोहके कारण (युद्ध) करनेकी इच्छा नहीं करेगा, तो स्वभावसे उत्पन्न कर्मसे बँधा होनेके कारण तुझे बलात् वह कर्म करना ही पड़ेगा। इसलिए सब-कुछ मुझे अर्पित करके, राग-द्वेषसे रहित होकर, मेरे प्रति परायण रहते हुए जो काम तुझे प्राप्त हो जाये, तू उसे कर । यदि ऐसा करेगा, तो तू अलिप्त रहेगा।

[ १९६ ]

शनिवार, ३० अक्तूबर, १९२६
 

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया

हे अर्जुन, समस्त प्राणियोंके हृदयमें ईश्वर वास करता है और वह अपनी मायासे सर्वभूतोंको चाकपर चढ़े हुए घड़ेकी तरह घुमाता रहता है।

हम पृथ्वीके गोलेपर बैठे हुए हैं। यह गोला एक क्षण भी नहीं रुकता । चौबीसों घंटे घूमता ही रहता है। तारामण्डल और सूर्य भी घूमते ही रहते हैं। इस तरह जगत्में कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है। किन्तु इनका यह घूमते रहना स्वयं अपनी-अपनी शक्तिसे नहीं होता, ईश्वरकी शक्ति ही सबको घुमाती रहती है। हम जिस तरह चाहें उस तरह यन्त्रको चलाते हैं, उसमें अपने मनसे चलनेकी शक्ति नहीं होती, उसी तरह ईश्वर हमें चलाता है। इसलिए हमें यह अहंकार नहीं करना चाहिए कि अमुक काम मैंने किया। हमें तो यही चाहिए कि हम अहंभाव भूल जायें; ईश्वरके हाथमें यन्त्रवत् रहें, उसकी इच्छाके अनुसार चलें और उसीको सर्वस्व समझकर उसकी योजनामें बँधकर ही बरताव करें।

१. इस दिनका विवरण महादेवभाईका लिखा हुआ नहीं है।