तमेव शरणं गच्छ सर्वभावन भारत ।
तत्प्रसादात्परां शान्ति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥ (१८, ६२)
तू सम्पूर्ण भावसे उसकी शरण में जा । तू उसीकी कृपासे परम शान्तिमय स्थान प्राप्त करेगा ।
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया ।
विमृश्यं तदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ॥ (१८, ६३)
इस तरह मैंने तुझे गुह्यसे-गुह्य ज्ञान बता दिया । तू इसपर पूरा विचार करके जैसा ठीक लगे, वैसा कर ।
सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः ।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् । (१८, ६४)
तू मेरा और भी गुह्यतम परम वचन सुन; तू मुझे प्रिय है, इसलिए मैं तेरा हित तुझे बतला रहा हूँ ।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥ (१८, ६५)
तू अपना चित्त मुझमें लीन कर । मेरा भक्त बन । मेरे ही लिए यज्ञ कर । मुझे नमस्कार कर । तू मुझे ही प्राप्त करेगा। यह मेरी सत्य प्रतिज्ञा है। तू मुझे प्रिय है।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ (१८, ६६)
सब धर्मोका त्याग करके एक मेरी ही शरणमें आ । मैं तुझे सारे पापोंसे मुक्त करूंगा। तू चिन्ता मत कर ।
समस्त शास्त्रों और 'गीता'का सार इस श्लोकमें है। तू सारी बहसें छोड़कर मेरी ही शरणमें आ । इससे तुझे श्रेय ही प्राप्त होगा। केवल आत्माकी उपासना ही कल्याणकारी है।
इवं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन ।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति । (१८, ६७)
जो तपस्वी नहीं है, जो भक्त नहीं है, जो सुनना नहीं चाहता और जो मेरा द्वेष करता है, तू उसे यह (ज्ञान) मत बताना ।
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।
भक्ति मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ॥ (१८, ६८)
परन्तु यदि तू यह परमगुह्य ज्ञान मेरे भक्तोंको देगा, तो वे मेरी भक्ति करके निःसंशय मुझे ही पायेंगे ।
समस्त ज्ञानका संग्रह अपात्रको देनेसे नहीं, पात्रको देनेसे ही होता है।