न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः ।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ।। (१८, ६९)
जो ऐसा करता है, उससे बड़ा मेरा प्रिय काम करनेवाला मनुष्योंमें और कोई नहीं है और मेरे लिए तो इस पृथ्वीमें उसकी अपेक्षा अधिक प्रिय कोई नहीं है ।
अध्यष्यते च य इमं धम्यं संवादमावयोः ।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ॥ (१८, ७०)
हमारे बीच हुए इस धर्म्य-संवादका जो अभ्यास करेगा, मेरे मतानुसार वह ज्ञानयज्ञके द्वारा मुझे भजेगा।
अर्थात् जो व्यक्ति इसका ज्ञानपूर्वक अभ्यास करेगा, वह मुक्त हो जायेगा। समझे बिना इलोकोंका उच्चारण करनेसे मुक्ति मिलनेवाली नहीं है।
[ १९७ ]
श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः ।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्य कर्मणाम् ॥ (१८, ७१)
जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक और द्वेषरहित होकर -- अन्धश्रद्धालुमें द्वेषभावना होती है - - इसे सुनेगा वह मुक्त होकर पुण्य कर्म करनेवालोंके शुभ लोकोंको प्राप्त करेगा ।
कच्चिदेतत्च्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा ।
कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रणष्टस्ते धनंजय ॥ (१८, ७२)
क्या तूने एकाग्र चित्तसे इसे सुना है? क्या अज्ञानसे तुझे जो मोह उत्पन्न हुआ था, वह नष्ट हो गया है ?
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥ (१८, ७३)
अर्जुन कहता है : हे अच्युत, तुम्हारी कृपासे मेरा मोह कष्ट हो गया है, मुझे अपनी स्मृति पुनः मिल गई है, मेरी शंका जाती रही है और मैं समझ गया हूँ कि मेरा कर्तव्य क्या है; अब मैं आपके कहे अनुसार करूँगा ।
अर्जुनकी स्मृतिका भ्रंश हो गया था । वह परिस्थिति दूर हो गई । वह समझ गया कि मेरा स्वभाव क्या है और मेरा कर्तव्य क्या है, और इस तरह वह सन्देह- रहित बन गया ।
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः ।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ॥ (१८, ७४)