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'गीता-शिक्षण'

हम गीतापाठको बन्द नहीं करेंगे। इसका पारायण चलता ही रहेगा। [ प्रार्थनामें ] नित्य थोड़े-बहुत श्लोक पढ़े जाते रहेंगे और यदि आवश्यकता हुई तो थोड़ा-बहुत विवेचन भी होता रहेगा ।

यह एक ऐसी पुस्तक है जिसे सभी धर्मावलम्बी पढ़ सकते हैं। इसमें कोई भी साम्प्रदायिक आग्रह नहीं है। इसमें शुद्ध नीतिके अतिरिक्त किसी अन्य बातका निरूपण नहीं है ।

उपसंहार

[१]

गुरुवार, ४ नवम्बर, १९२६
 

'गीताजी 'के अभ्यासका तात्पर्य यह है कि हम प्रार्थना करें, अध्ययन करें और कर्तव्यको समझकर उसका पालन करें। कोई भी पुस्तक अधिकसे-अधिक इतनी ही सहायता पहुँचा सकती है। वैसे किसी पुस्तक और उसकी व्याख्यासे और हो भी क्या सकता है ? अन्तमें तो जितना होना होता है उतना ही होता है। हमारे हाथमें तो केवल पुरुषार्थ ही है। हमें तो सिर्फ प्रयत्न करना है। मनुष्य-मात्र और दूसरे प्राणी भी प्रयत्न करते हैं। अन्तर इतना ही है कि हमारे प्रयत्न हमारी समझमें ज्ञानपूर्वक होते हैं। किन्तु आखिरकार प्रयत्नका उद्देश्य क्या है ? इस देहको टिकाना अथवा देहको धारण करनेवालेको जानना ? यदि देहकी उन्नति भी करनी योग्य हो तो उसमें उद्देश्य, उसीकी उन्नति अथवा विकास है या नहीं? पहली बात तो यह है कि कर्म तो हमें विवश होकर करने ही पड़ते हैं। हमारी शरीर-रचना ही ऐसी है कि विवश रूपसे कर्म होता ही रहता है। उदाहरणके लिए जब बालक माताके गर्भ में होता है तब भी वह कुछ-न-कुछ चेष्टा करता ही रहता है। उस मूच्छित अवस्थामें भी उसकी साँस चलती रहती है। यह भी प्रयत्न तो है ही। किन्तु यह प्रयत्न पुरुषार्थ नहीं कहलाता । पुरुषार्थ तो केवल आत्माके विषयमें किया गया कर्म ही कहा जा सकता है। इसे तो परम पुरुषार्थ कहा गया है; शेष सब निरर्थक है। इस तरहके पुरुषार्थके लिए शास्त्रका वाचन, मनन और निदिध्यासन एक साधन है। हमारा अभ्यास सुन्दर हो इस दृष्टिसे उच्चार, और ध्वनिका ध्यान रखकर पुनरावर्तन करते रहना आवश्यक है। गीतापाठके आसपासका सारा वातावरण पवित्र बनाये रखना आवश्यक है। जब हम 'गीता' घोलकर पी जायेंगे तब फिर व्याकरण और उच्चारण इत्यादिकी चिन्ता करना आवश्यक नहीं बच रहेगा।

हमें प्रयत्न तो परम पुरुषार्थके लिए ही करना चाहिए। उसके लिए साधनोंकी खोज आवश्यक है। हम 'गीता'की स्तुति करते हैं, इसका सम्मान करते हैं। यह निस्सन्देह हमारी रक्षा करेगी। यह मानसिक देवता है। इसका नित्य वाचन और पारायण तो होना ही चाहिए।