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'गीता-शिक्षण'

तो रहता है हकीमों और याकूती आदि दवाइयोंसे, किन्तु बातें करता है वेदान्तकी । इस तरह देखें तो बालक और बूढ़े सभी समान हैं। इन इलोकोंसे अर्थात् ओंकारसे लगाकर पुस्तकके अन्ततक में से कोई एकाध बात भी आचरणमें उतार ले तो उसे शान्ति प्राप्त हो जाये । जो काम परोपकारके लिए किया जाना है वह तो हमारे सामने पड़ा हुआ ही है। इस तरहके प्राप्त कर्मके बाद अन्य असंख्य कर्म बच ही नहीं रहते। जबतक देह है तबतक हलमें जुते हुए बैलकी तरह यदि हम प्राप्त कर्म के जुएको अपने ऊपर रखे रहेंगे तो हमारा भटकना कमसे-कम हो जायेगा और इस भटकनेकी तीव्रता बहुत कम भी हो जायेगी। इस तरह अकर्मी होते हुए जो काम किया जायेगा वह परिणाममें कितना अधिक होगा उसकी तो कुछ बात ही मत पूछो । जगत्में अनेक प्रवृत्तियाँ और कर्मोंके होते हुए भी हमें सोच-विचारकर अपना कोई काम खोज लेना चाहिए; अथवा वह काम स्वयं ही हमें खोज निकालेगा। जिसे सेवा करनी है, सेवाका क्षेत्र तो उसे प्राप्त है ही। सारी बातें कहनेके बाद अन्वमें अठारहवें अध्यायमें यह कहा गया कि तू मेरी शरणमें आ और तू यही काम कर । किन्तु मेरी आज्ञाको मानकर कर । तेरे पास जो-कुछ है, वह सबका-सब मुझे अर्पण कर और यह काम कर। किन्तु यह कैसे हो सकता है, सो हम बादमें देखेंगे।

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बुधवार, १० नवम्बर, १९२६
 

आज हम सिंहावलोकन करेंगे किन्तु सिंहावलोकन करते हुए मैं क्या कहूँ, यह कुछ समझमें नहीं आया। बिलकुल आखिरी अठारहवें अध्यायमें पहुँचकर व्यासने सोचा कि मैंने अर्जुनको क्या बताया। ज्ञान अथवा अज्ञान । शुद्ध भक्ति अथवा कोई और वस्तु । इसलिए उस सबकी जगह वह कृष्णसे 'सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज' कहलाते हैं। अर्जुनसे भी बादमें व्यासने यह कहलवाया है कि मैं सब-कुछ भूल गया हूँ, इसीलिए मुझे फिरसे बताओ। भगवान कहते हैं कि यह मुझे हमेशा याद रहता हो, सो भी नहीं है। फिर भी मैं तुझे कुछ और बतलाता हूँ, ऐसा कहकर मानो दूसरी गीता' ही सुना दी; किन्तु उस 'गीता'की किसीको याद नहीं आती। स्वामी. .२७ वर्षसे भटक रहे हैं, किन्तु अभीतक उन्हें कुछ मिल नहीं पाया है। अब अन्ततोगत्वा वे. पंथके व्यक्तियोंके बीचमें पड़े हुए हैं। में जो कुछ कह रहा हूँ, इसे सुनकर निराशा हो सकती है, किन्तु है यह सच । व्यक्ति भगवानकी शरणमें किस तरह जा पाता होगा और हम किस तरह जायें ?. ने कहा, मुझे कुछ तो दो, मैं क्या लेकर जाऊँ। में देखते रह गया और फिर मैंने कहा रामनाम लो। किन्तु मैंने उसे क्या दिया और उसने क्या लिया ? इस तरह कुछ नहीं होता । कितने ही वर्षोंसे यह बात कही जा रही है, किन्तु कितने थोड़े लोग हैं जो इस तरह भगवानकी शरणमें जाते हैं। ईश्वरकी ही शरणमें जाओ यह बात कुछ 'गीताजी'

१. महाभारत, अश्वमेध पर्व ।

२, ३, ४. साधन-सूत्रमें नाम नहीं दिये गये हैं।

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