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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

में ही नहीं कही गई है। तब फिर हमारी चंचलता समाप्त कैसे हो ? इसकी खोज बाहर नहीं, भीतर ही की जानी चाहिए। बाहर खोजें तो कैसे खोजें ? जो ईश्वर बाहर नहीं है बल्कि अन्तरमें है तो हम अन्तरमें प्रवेश कैसे करें? द्वारपर जो मोटा पत्थर रखा हुआ है, उसे किस तरह तोड़ें? परमात्माकी खोज करनेका अर्थ है, अपने अन्तरमें प्रवेश करना । यह प्रवेश प्रवृत्ति-मात्रके त्यागसे हो सकता है। किन्तु सारी प्रवृत्तियाँ ती छोड़ी नहीं जा सकतीं इसलिए हम कमसे-कम प्रवृत्तियोंमें पड़ें; तुच्छसे-तुच्छ बनें। ईश्वरको प्राप्त करनेका काम संसार जितना कठिन समझता है उतना कठिन नहीं है। बस, हमें इतना ही करना है कि तुच्छ बनकर चौबीसों घंटे आत्माके काममें लग जायें। इसमें स्वयं हम आड़े आते हैं। इस बाधाको दूर करनेके लिए क्या करें ? योगदर्शनमें सबसे पहले यही बात बताई गई है। मैं सोच रहा हूँ कि हम बच्चोंको क्या तालीम दें। बच्चोंको यही तालीम दी जानी चाहिए। हमें इतना ही करना है कि हम उनके पाससे यह तालीम छीन न लें। हम अपनेको गरीबोंके साथ एक कर देना चाहते हैं। हमारी आजकी शिक्षासे तो गरीबोंके बाल- बच्चोंको कुछ भी नहीं मिलता। वे जन्मसे खेतों में काम करते हैं। जहाँ-जहाँ किसान लोग व्यवस्थित ढंगसे काम करते हैं, वहाँ-वहाँ उनके बाल-बच्चे शुरू से ही इस कामको करते हुए दिखाई देते हैं । हम लोग जिस तरहका विचार कर रहे हैं, वैसा विचार करनेवाले लोग बहुत थोड़े हैं। ईश्वर प्राप्तिका रास्ता अर्थात् स्वराज्य-प्राप्तिका रास्ता भी छोटेसे-छोटा काम हाथमें लेना है अर्थात् हमें विद्यार्थियोंके सामने अपने आपको हम जैसे हैं, उसी रूपमें रखना चाहिए । यदि हम इसमें अपने सहज भावसे ढल जायें तो विद्यार्थी भी इसे देखेंगे और समझेंगे। मैंने वैलेसका उल्लेख किया था । अन्तमें वह कहता है कि अभी मैंने अपनी तर्क-बुद्धिका समर्पण कहाँ किया है। तर्कको कायम रखना तो प्रोटेस्टेंट बने रहना है । किन्तु [ वास्तवमें ] वह बुद्धिको बेचकर, विचारको बेचकर और अपना सब कुछ समर्पित करके नमकके ढेले की तरह सागरमें मिल गया। यही बुद्धिका निर्वाण है। नमकके ढेलेको स्मरण ही नहीं रहता कि मैं एक दिन अल्प था और आज सागर हो गया हूँ । इसलिए हमें अपनी तुच्छताका अनुभव करना चाहिए। छोटेसे-छोटा काम हाथमें लेना चाहिए और उसे करते हुए सब-कुछ छोड़ देना चाहिए । परिपूर्ण वैराग्यका सेवन करना चाहिए ।

जबरदस्त भाग-दौड़से कुछ नहीं हो पाता । 'गीताजी' ने सर्वधर्मोके परित्याग की बात कही । उसका अर्थ है कि कोई अत्यल्प, छोटीसे-छोटी प्रवृत्ति हाथमें लें और तुच्छताका अनुभव करें । तुझे तो जगत्का दास बनकर रहना है, इससे आगे जाना तेरी शक्तिके बाहर है।

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शुक्रवार, १२ नवम्बर, १९२६
 

क्या यज्ञार्थ की गई सन्तानोत्पत्ति ब्रह्मचर्यमें आ सकती है ? आ सकती है। किन्तु इसमें सन्तानोत्पत्ति मुख्य और यज्ञ गौण होता है। जिस तरह यज्ञार्थ की हुई