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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है । यदि कोई कहे कि नहीं, पृथ्वी सपाट है तो वह ऐसा कहनेवालेसे उलझ जायेगा । जिसे शिक्षककी इस बातपर विश्वास हो जायेगा, उसे शिक्षककी दूसरी बातपर भी विश्वास हो जायेगा। उक्त विद्यार्थी भूगोल-विद्याके विषयमें जिस तरह विश्वास करेगा, उसी प्रकार धर्मरूपी भूगोल विद्याके विषयमें भी विश्वास करेगा । किन्तु फिर भी अनेक बातोंको लेकर उसकी जिज्ञासा जाग्रत होगी । कुछ वस्तुएँ तो मान ही लेनी पड़ती हैं, जैसे सरल रेखाकी परिभाषा । बादमें यह बात पक्की तरह स्पष्ट भी हो जाती है। विद्यार्थी अवस्था कुछ बातोंको मान लेनेकी अवस्था है। केवल विद्यार्थी ही क्यों, प्रौढ़ व्यक्तियोंको भी बहुत कुछ मानकर चलना पड़ता है, अन्तमें जो बच रहता है, उसके विषय में श्रद्धासे काम लिये बिना गति नहीं है। विद्यार्थीकी बुद्धि कोमल होती है। वह बहुत बोझा नहीं उठा सकती। जैसे-जैसे बुद्धि प्रौढ़ होती जाती है, वैसे-वैसे परिप्रश्न और प्रणिपातके द्वारा वह समस्याओंको सुलझाती चली जाती है । किन्तु शर्त यही है कि उसमें जिज्ञासा और आतुरता सदा होनी चाहिए । इसीलिए इसे विषाद योग कहा गया है। विषाद योग अर्थात् विषादके माध्यमसे ईश्वरके साथ जुड़ना । ईश्वरमें लीन होना हो, मोक्ष प्राप्त करना हो, तो हममें विषाद पैदा होना चाहिए । हमें आर्त बनना चाहिए।. ने मुझसे कहा कि क्या उपवासके अन्तमें ईश्वर नहीं मिल सकता । यदि विकार उत्पन्न होते रहते हों, तो क्या शरीरको तड़ा- तड़ मारते रहना ठीक नहीं है ? हिन्दुस्तानमें साधुओंकी जमाते हैं। कितने ही कीलोंके ऊपर सो जाते हैं, कितने ही जलती हुई दोपहरीमें धूनी रमाये आरामसे बैठे रहते हैं। जब वे अपनी देहको इस तरह दुःख दे रहे होते हैं, तब उनके मनमें बुरे विचार नहीं आते होंगे। यूरोपमें भी ऐसे उदाहरण देखे जा सकते हैं। फकीरोंमें भी ऐसे लोग पाये जाते हैं। संसारमें तपस्या करनेवाले लोग होते चले आये हैं, और यह कोई पागलपन नहीं है। किन्तु मैंने तो अपना नम्र मत ही सामने रखा है कि ऐसा हम न करें। हमें तो मनको कष्ट देना है, मनको सुधारनेके लिए धीरजसे काम लेना है। उपवास आदि चाबुक मारने जैसे हैं। यदि यह निश्चित हो जाता कि उप- वाससे मुक्ति मिल सकती है, तो सभी उपवास करने लगते । जगत्में जिज्ञासुओंकी संख्या कम नहीं है। बहुत है। जब लोग सांसारिक वस्तुओंको प्राप्त करनेके लिए अनेक कष्ट भोगते हैं तो अलौकिक लाभके लिए क्या वे गलेमें छुरी खानेतक के लिए तैयार नहीं हो जायेंगे। मैंने कितने ही लोगोंको पैसेके लिए अपने शरीरमें छुरी घोंपते देखा है। जो लोग थोड़े-बहुत पैसेके लिए ऐसा कर सकते हैं, वे राजसिंहासनके लिए क्या नहीं कर सकते ? किन्तु शरीरको ऐसा कष्ट देना सरल नहीं है। हमारे पास मध्यम मार्ग भी है; और वही ग्रहण करने योग्य है । तथापि . . .की बातमें एक तथ्य तो है ही । इस दिशामें उत्साह चाहिए। जिस तरहका उत्साह कामी- जनोंमें होता है, वैसा उत्साह वैसी आसक्ति मोक्षके विषयमें चाहिए । जगत् के प्रति आसक्ति न रखकर इस विषयमें आसक्त होना चाहिए । अर्जुन बननेकी पहली शर्त तो यही है कि व्यक्तिके मनमें विषाद उत्पन्न होना चाहिए । व्यक्ति 'स्व' और 'पर

१, २. साधन-सूत्र में नाम नहीं दिये गये है।