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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

चला जायेगा और जिसे लेने जा रहा था वह तो गया हुआ है ही । एक अन्य बातपर भी विचार करना चाहिए । सेनापति अपनी जगहपर बैठा हुआ है और प्रधान अपनी जगहपर । वे एक-दूसरेसे कम नहीं हैं। धर्मकी बात यहीं आती है। उसमें एक-दूसरेसे कम-ज्यादा होनेका भाव होता ही नहीं है; क्योंकि यदि दोनों अपने-अपने धर्मका पालन करें तो उसका पालन करते हुए वे शत-प्रतिशत श्रेय प्राप्त कर सकते हैं ।

नीयत ही ईश्वरके दरबारमें सबसे पहले देखी जाती है । वहाँ यह नहीं देखा जाता कि कौन बड़े पदपर है और कौन छोटेपर । स्वधर्म अच्छा है और परधर्म उससे हीन है, यह भी कदापि नहीं मानना है। मानना यही है कि अपना ही धर्म सबसे अच्छा है। माता और शिशुका उदाहरण लीजिए । बालक कुरूप हो तो माता उसका और भी अधिक ध्यान रखती है । जो कोई भी उसका तिरस्कार करना चाहेगा वह उससे झगड़ पड़ेगी। इस तरह स्वधर्म मोक्षदायी है। 'महाभारत में इसके अनेक दृष्टान्त हैं। तुलसीदासकी 'रामायण में भी गुह और शबरी ईश्वरपरायण बने रहकर अपने-अपने काममें लगे रहे और इसलिए उन्होंने परमपद प्राप्त किया।

वर्णाश्रमका मूल स्वधर्ममें है। आज हमें वर्णोंकी ठीक-ठीक समझ नहीं है। वर्ण रोटी-बेटी व्यवहारमें सीमित होकर रह गया है। केवल हिन्दू धर्ममें ही वर्ण नहीं है। यदि यह केवल एक ही समाजका धर्म होता तब तो बहुत संकुचित कहलाता और इसके लिए प्राण देनेकी जरूरत न पड़ती । किन्तु यदि यह धर्म कोई एकांगी धर्म न होकर सनातन धर्म हो तो वह सब प्रकार रक्षणीय है । रोटी-बेटीका व्यवहार वर्णका आधार नहीं है । कर्मकी व्यवस्था उसका आधार है । छुआछूतका भाव तो बहुत बादमें आया। सारे संसारमें कर्मभेद देखा जाता है। सब जगह कर्मका विभाजन है। बड़े होकर लड़के क्या करेंगे, अधिकांश माता-पिताको इसका विचार करना पड़ता है और लड़कोंको भी इसका विचार करना पड़ता है। [वणश्रम धर्म हमें इस चिन्ता- से बचा लेता है। ] इसकी चिन्तामें हम लोक और परलोक दोनोंसे हाथ धो बैठते हैं। इसकी ऊहापोहमें हम अपने सहज साधन खो बैठते हैं। ऐसी अवस्थामें कौन किसे बताये कि किसका क्या धर्म है। स्वधर्मका अर्थ व्यक्तिका समाजसे स्वतन्त्र हो जाना नहीं है। यदि व्यक्ति मोक्षप्राप्तिका प्रयास करता हुआ अपनेको स्वतन्त्र माने तो वह अपने उद्देश्यमें असफल हो जायेगा। मोक्षार्थी तो समाजका दास ही बन जाता है। मोक्ष प्राप्त करनेका अर्थ है नमकके ढेलेका समुद्रमें घुल-मिल जाना । मोक्षपद प्राप्त करनेका अर्थ हुआ विशालसे-विशाल समुद्रमें जा मिलना । हम इस समाजमें केवल एक क्षुद्र जीव हैं। क्षुद्र जीव शब्दसे ही परतन्त्रता प्रगट होती । इस परतन्त्रता में ही हम स्वतन्त्र हैं। समाज हमें जो काम सौंप दे, वही हमारा काम हो जाता है। तीन आदमी हों तो एक सबसे ऊपर तो होगा ही। सेनापतिको कुछ बातोंमें प्रधानसे आदेश लेना पड़ता है और कुछ बातोंमें प्रधानका कर्त्तव्य है कि वह सेनापतिसे परामर्श करे। इस तरह स्वधर्मका अर्थ हुआ ऊपरके व्यक्तिने जो बताया वह काम करना। इसके आधारपर हम सूक्ष्म विचार कर सकेंगे ।