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पत्र : घनश्यामदास बिड़लाको

गुणोंको अच्छी तरह देख लिया था और जो जिस धर्मका होता, वे उसके सामने उसी धर्मकी खूबियाँ रखते थे। दक्षिण आफ्रिकामें रहते हुए मैंने उनके साथ जो पत्र-व्यवहार किया था उसमें से भी मैंने उनसे यही बात सीखी थी।

मेरी तो यह मान्यता है कि सारे धर्म उनके अपने भक्तोंकी दृष्टिसे सम्पूर्ण ही हैं और सब धर्म अन्य लोगोंकी दृष्टिमें अपूर्ण हैं। स्वतन्त्र रूपसे विचार करें तो सारे धर्म पूर्णापूर्ण हैं। अमुक सीमाके बाद सारे शास्त्र बन्धनरूप जान पड़ते हैं। लेकिन यह तो गुणातीतकी स्थिति हुई। रायचन्दभाईकी दृष्टिसे विचार करें तो किसीको अपना धर्म छोड़नेकी आवश्यकता नहीं। सब कोई अपने-अपने धर्म में रहकर अपनी स्वतन्त्रता अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं क्योंकि मोक्ष प्राप्त करनेका अर्थ है सर्वथा राग-द्वेषरहित होना।

मोहनदास करमचन्द गांधी

[ गुजरातीसे ]
श्रीमद् राजचन्द्र

२. पत्र : घनश्यामदास बिड़लाको

दीपावली[१] [ ५ नवम्बर, १९२६ ]

भाई घनश्यामदासजी,

आपका लंबा पत्र मीलनेसे मुझको बड़ा आनंद हुआ है। आपकी निंदाके शब्द मेरे कानोंपर पड़े थे। मैं उसका विश्वास नहीं करता था। परंतु आपके पत्रसे मुझको पूरा संतोष हुआ। कहनेवालेने यह कहा कि आप सौके बदले में ५०० रुपये[२] देकर काम ले रहे हैं। जिस ढंगका आपने मुझको वर्णन दीया है उसमें तो मुझे कुछ भी नह कहना है।

जिनीवाके बारेमें मेरी राय यह है। आप धीरज रखें। जानेसे कोई बड़ा लाभ मैं नहि देखता हूँ। यदि यूरोपका अनुभव आवश्यक है तो आप स्वतंत्रतया जायं। जानेका मौका बहौत हि मिलेगा। आज नहिं है ऐसा अंतरात्मा कहता है। आखरमें तो आपको अंतरात्मा जो कहे वही कीजीये।

तबीयत अच्छी होगी।

आपका,
मोहनदास गांधी

मूल पत्र (सी० डब्ल्यू ० ६१३७ ) से।
सौजन्य : घनश्यामदास बिड़ला
  1. घनश्यामदास बिड़लाको प्रस्तावित जिनीवा यात्राके उल्लेखसे प्रकट होता है कि यह पत्र १९२६ में लिखा गया था। उस वर्ष दीपावली ५ नवम्बरकी थी।
  2. यहाँ शायद ५० रुपये होने चाहिए।