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'गीता-शिक्षण'

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मोक्ष-सम्बन्धित इस पुस्तकमें नगण्य कामोंको करना और उसमें भी उन्हें स्वधर्म माननेकी बात कही गई है, सो किसलिए? क्या इससे मोक्ष मिलता है ? मिलता है। 'महाभारत' में तुलाधारकी कहानी है। कोई ब्राह्मण ज्ञानप्राप्तिके लिए गया और ज्ञान मिला उसे कसाईके घर । महादेव [ देसाई | ने जिस भक्तका उल्लेख किया वह कुम्हार था और भोजा' भक्त मोची था । 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः' कहकर श्रीकृष्णने कोई अनोखी बात नहीं कही है। स्वधर्ममें विचार है अपने ऊपर पाबन्दी लगानेका । का अर्थ है वह वस्तु जो हममें रच-पच गई है। जो भोजन पचा नहीं है, वह विकार उत्पन्न करता है और अनेक रोग हो जाते हैं। यदि हम अपने आसपास गरिष्ठ पदार्थ खानेवाले लोगोंको देखकर और उन्हें हृष्ट-पुष्ट होते देखकर वैसा ही करने लगें तो उससे हानि होगी। स्वधर्म तो सभीके लिए वास्तविक मोक्ष है। किन्तु जबतक मोक्ष मिला नहीं है, तबतक देहधारीकी हैसियतसे हम क्या करें। यदि हम देहके धर्मको जान लें और उसके धर्मोके अनुसार आचरण करते चले जायें तो हमें सम्पूर्ण रूपसे 'स्व' को पानेके लिए परतन्त्रता स्वीकार करनी ही पड़ेगी। रहना तो हमें ईश्वरके अधीन ही है। हम रोज 'अन्तर मम विकसित करो" गाते हैं। किन्तु क्या इसलिए हम अपने हृदयमें ईश्वरको जगा सकेंगे ? हृदयमें चेतनाके संचारके लिए हमें किसी-न-किसीकी सहायता लेनी पड़ेगी। स्वधर्मका अर्थ होता है अमुक क्षणमें प्राप्त कार्य । हमें किसी-न-किसीके द्वारा सौंपा हुआ काम करना है। हमें अन्तरा- त्माके इशारेपर चलना है। किन्तु जिसके अन्तरात्मा न हो, वह क्या करे ? जब हम 'मैं' को निकालकर बाहर करेंगे, तभी ईश्वर वहाँ विराजमान हो सकेगा। इसके लिए हमें परतन्त्र होना है। 'पर' का अर्थ है दूसरा और उत्तम पुरुष । हमें उसके अधीन होनेपर जो आज्ञा प्राप्त हो, तदनुसार काम करना है। किसी एक स्थानपर युक्त हो जानेके बाद हमें अनन्य निष्ठा और कर्त्तव्यपरायणतासे काम लेना चाहिए। भले ही वह प्राप्त धर्म देखनेमें कैसा भी क्यों न हो, उससे दुर्गन्ध आती हो, उसमें हिंसाका ही भास होता हो, तो भी वह किया ही जाना चाहिए। इस हिंसामय जगत्‌में हिंसाका धर्म प्राप्त हो जाये तो उसे किये बिना छुटकारा नहीं है। हरिश्चन्द्रको ऐसा ही धर्म प्राप्त हो गया था। जिस समय उसने अपनी स्त्रीपर तलवार उठाई, उस समय वह अहिंसक था। पत्नीका अनिष्ट उसे इष्ट नहीं था। उसका हृदय करुणाका सागर था। कवि कहता है कि उसने अपने हृदयको कठिन बना लिया। किन्तु नहीं, उसने केवल अपने हाथको कठिन बनाया था । यदि हम चित्रकार होते, तो हम उसका जो चित्र खींचते उसमें उसे परेशान चित्रित न करते । उसकी भौंहोंमें बल न होता। यदि हरिश्चन्द्रने यह काम मुखपर खिन्नताका भाव लिये हुए किया होता, तो कहा जाता कि वह मोहान्ध हो गया था और हम ऐसा ही मानते कि इस सीमा

१. गुजराती सन्त कवि (१७८५-१८५०)।

२. रवीन्द्रनाथ ठाकुरकी प्रसिद्ध रचना जो आश्रम-भजनावलिमें सम्मिलित है।