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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तक आकर वह गिर गया था। तब उसपर ऐसा कलंक लग जाता । उसके मुख- पर ग्लानिका कोई चिह्न हो ही नहीं सकता था। इसी तरह हमें भी जब जो धर्म प्राप्त हो जाये, उसे सम्पूर्ण रूपसे तत्परायण होकर करना चाहिए और संशयरहित होकर करना चाहिए । आरम्भ न करना बहुत अच्छा है; किन्तु आरम्भ करनेके बाद कामको कदापि नहीं छोड़ा जा सकता। गुड़में चिपट जानेके बाद मकौड़ा फिर उसे छोड़ता ही नहीं है। उसने उसमें अपने पाँव गड़ा दिये, सो गड़ा दिये। हाथमें लिये हुए कामको न छोड़ना ही सत्याग्रह है। बालकसे लेकर वृद्धतक हरएकका कर्त्तव्य है कि जो काम लिया है, निःसत्त्व होनेतक उसे करते ही चले जायें। यही अन्तर्ध्यान है, यही वेदान्त है। प्राप्त कर्मको करते हुए बुद्धिको ईश्वरार्पण कर देना तो आवश्यक ही है। काम कोई भी क्यों न हो, उसे करते समय तन्मयता तो होनी ही चाहिए । स्वार्पण बुद्धिसे किया गया काम पतनकारी और ईश्वरार्पण बुद्धिसे किया गया काम ऊर्ध्वगति दायक है ।

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परधर्मकी अपेक्षा स्वधर्म अच्छा है यह एक बात हो गई। अब यदि कोई भी कर्म किये बिना रह नहीं सकता तो ज्ञानी और अज्ञानीके कर्ममें अन्तर क्या है। ज्ञानी दूसरोंके लिए यज्ञ करता है और अज्ञानी अपने लिए। यदि हम यज्ञार्थ, परोपकारार्थ कर्म करेंगे तो वह अकर्म बन जायेगा। किन्तु इसके बाद लोक-संग्रहकी बात भी की गई और कहा गया कि तुझे तो तन्द्रारहित होकर काम करना है। तू अहंकार छोड़कर बुद्धिको ईश्वरापित करके काम कर ।

इस प्रकार काम करनेका प्रयत्न करते हुए पापकर्म हो जानेकी सम्भावना कहाँ है ? यदि हम स्वधर्म करते हुए स्वेच्छाचरण करने लगें, हमें अभिमान हो जाये तो वह स्वधर्मका आचरण न हुआ। इसी कारण संसारमें अधिकांश लोग स्वधर्मका आचरण करते हुए भी अपने पाप-कर्मकी राशि ही बढ़ाते चले जाते हैं।

तीसरे अध्यायमें 'गीता' पूरी हो जाती है। गाया होता तो भी काम चल जाता। और तीसरे यदि उसके बाद कुयदिछ भी न लिखा ध्यायमें विशेषतः पाँच-सात श्लोक ऐसे ही हैं। 'गीता' के शेष भागमें तो इन तीन अध्यायोंमें कही गई बातको ही अधिक समझाया गया है।

श्रीकृष्ण अर्जुनको जवाब देते हैं कि काम और क्रोध -- ये दोनों व्यक्तिके दायें और बायें कंधेपर बैठे हुए हैं। यदि स्वधर्मका आचरण करते हुए ये दोनों हमपर सवार हों तो स्वार्थ व्यर्थ हो जाता है। क्या ऐसा कहा जा सकता है कि कौंसिल-प्रवेश करनेवाले बहुतसे लोग आज कोई छोटा काम कर रहे हैं। बहुतसे लोग इस कामको परोपकारकी दृष्टिसे ही कर रहे हैं, किन्तु उसे करते हुए उनके मनमें एक इच्छा पड़ी हुई है। उनकी इच्छा जीत प्राप्त करनेकी है और उनके मनमें क्रोध है। इसलिए वह अनुचित है। काम और क्रोध दोनों सगे भाई हैं और इन दोनोंका आधार है इन्द्रियाँ और मन । अर्थात् इन्द्रियोंको और मनको जीतकर ही काम और क्रोधपर विजय प्राप्त की जा सकती है। मनको अपने वशमें रखकर ही जगत्पर विजय