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'गीता-शिक्षण'

प्राप्त की जा सकती है और इसीलिए यह कहा गया है कि मोक्षका मूल राग-द्वेष आदिसे रहित होना है। और इसीलिए हमसे राग-द्वेष होन होनेको कहा गया है । जब हम किसी बातके वशमें हो जाते हैं तो उसके लिए क्या नहीं करते। विश्वामित्र- ने बड़ा तप किया, किन्तु बादमें उनके मनमें यह भाव उत्पन्न हुआ कि मेरा तप वशिष्ठके तपसे श्रेष्ठ है। इसलिए मनमें वासना उत्पन्न हुई और वे क्रोधके वश भी हुए। अपनी बुद्धिसे इस भावको दूर करके आदमी बीरबहूटीकी तरह [ धीमी किन्तु निरन्तर गतिसे ] चलता चला जाये और धैर्यपूर्वक निश्चिन्त भावसे काम करता चला जाये ।

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२३ नवम्बर, १९२६
 

बात तो तब है जब स्थिति ऐसी हो जाये कि 'गीता' का पाठ किये बिना जीवित रहना कठिन लगने लगे। कहाँ सन्ध्याकी व्यस्तता और कहाँ प्रातःकालका शान्त मुहूर्त। हमने 'गीता का पाठ कर लिया और पाठ करा दिया, इतना ही पर्याप्त नहीं है। हमारा उच्चारण आदि भी दिन-प्रतिदिन शुद्ध होते चलना चाहिए। एकमें भी दोष रह जाये तो वह सबका दोष है। जैसे वाद्य-वृन्दके संगीतमें एकका दोष सबका दोष हो जाता है, उसी प्रकार जीवन-संगीतके विषयमें भी समझना चाहिए। यदि हृदय और मनको एक करके प्रार्थना चलाई जाये तो फिर शरीरका क्या ? वह तो नाशवन्त है; रहे चाहे न रहे। देह नामक यह जड़ पदार्थ ईश्वर और हमारे बीच चाहे जितनी दूरी उत्पन्न क्यों न करता हो, किन्तु आखिरकार यह हमें कितनी देरतक दूर रख सकता है। यदि हम अपने बीच ईश्वरको साक्षी रखकर आत्माका अनुसन्धान करें और यदि हम एकके दोषको सबका दोष मानकर चलें तो यह एक बहुत अच्छी बात होगी। यदि हम सब अपना उच्चारण भी शुद्ध कर लें तो हम भगवानके सामने शुद्धसे- शुद्ध पात्र में जल लेकर उपस्थित होंगे। वह अतिशय स्वच्छताके साथ बेलपत्र चढ़ाने जैसा, जलके स्वच्छसे स्वच्छ प्रवाहमें से अर्ध्य भरकर लाने जैसा होगा । यों बाहरकी टीमटाम निरर्थक है। किन्तु जहाँ श्रद्धाकी बात हो, वहाँ व्यवस्था शोभित होती है। श्रद्धालु तो अपनी भेंटमें कलाका जितना विनियोग कर सकता है, उतना करेगा। आजकी कला तो निकम्मी है, निर्जीव । पुराने कलाकारोंमें कितनी धीरज रही होगी। उन्होंने इसे हस्तगत करने में कितने वर्ष लगा दिये होंगे। हमारी दृष्टिमें अभीतक एक भी ऐसे पुराने कलाकारका नाम नहीं आया, जिसने अपना जीवन कोई बड़ा महल बनामें खपा दिया हो । उच्चार-शुद्धि करनेकी हमारी इच्छा हमारे प्रेमके अन्तर्भावका लक्षण है। इसलिए हमें चाहिए कि हम अपना गीतापाठ कदापि नीरस न बनने दें।

तीसरे अध्यायमें कर्मकी विजयका व्याख्यान किया गया है। कर्मके द्वारा योग साधना हो तो भगवानको अर्पित करके कर्म किये जाने चाहिए। ऐसा कहकर वहाँ यह भी बताया गया है कि ऐसे कर्मकी साधन-सामग्रीमें क्या-क्या सम्मिलित है। इसमें ज्ञानका संभाग होना चाहिए। फिर हम ज्ञानमार्ग और कर्ममार्गके विषयमें विचार